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________________ अनेकान्त 59/3-4 कतिपय विद्वानो की दृष्टि में 'न्यायसूत्र' के कर्ता महर्षि गौतम प्रमाण शास्त्र के आदि प्रवर्तक माने गये हैं। परन्तु इनका समय अनिर्णीत है। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि इनका काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा की पांचवी शताब्दी के मध्य कभी होना चाहिए।।5 वौद्ध परम्परा में बुद्ध परिनिर्वाण के पश्चात् लिखे गये त्रिपिटक एवं मिलिन्दपज्हो आदि ग्रन्थों के विविध संवादों में प्रमाण के सूत्र उपलब्ध होते हैं। प्रमाण व्यवस्था युग : प्रमाण लक्षण का विकास प्रायः समस्त भारतीय दर्शनों के परम लक्ष्य मोक्ष के उपायों में प्रमाणों की आवश्यकता होती है। सभी ने अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार प्रमाण का विवेचन किया है। कभी-कभी एक ही परम्परा के विवेचन में भी अन्तर दृष्टिगोचर होता है। सामान्यरूप से भारतीय प्रमाण शास्त्र में प्रमाण के स्वरूप के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ दृष्टिगोचर होती है- प्रथम ज्ञान को प्रमाण मानने वाली दृष्टि एवं द्वितीय इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानने वाली दृष्टि । जैन और बौद्ध परम्परा में ज्ञान को प्रमाण माना गया है। दोनों में अन्तर इतना है कि जैन सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं और बौद्ध निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। दूसरी परम्परा वेदिक दर्शनों की है जिसमें प्रायः इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि को प्रमाण माना गया है अर्थात् इन परम्पराओं में ज्ञान के कारण को प्रमाण माना गया है और ज्ञान को उसका फल। जैनदर्शन में ज्ञान को प्रमाण मानने का कारण यह है कि जो जानने की प्रमारूप क्रिया है वह चेतन होने से उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही हो सकता है। प्र+मान शब्द के योग से निष्पन्न प्रमाण शब्द में प्र उपसर्ग पूर्वक मा धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर इसकी 'प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम्' व्युत्पत्ति की जाती है।16 तात्पर्य यह कि प्रमाण शब्द भाव, कर्तृ और करण तीनों साधनों में निष्पन्न होता है। भाव की विवक्षा में प्रमा, कर्तृ की विवक्षा में शक्ति की प्रमुखता से प्रमातृत्व तथा
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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