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अनेकान्त 59 / 1-2
3. रात्रि भोजन त्याग - अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए और मूल व्रतों की शुद्धि के लिए श्रीसोमदेवसूरि ने रात्रि में भोजन के त्याग को आवश्यक माना है। उनका कहता है कि अहिंसक को इस लोक एवं परलोक में दुःखदायी रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए | 22
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4. अन्य त्याज्य वस्तुएँ - अचार, पानक, धान्य, फूल, फल और पत्ते जो जीवों की योनि हैं; ऐसी वस्तुएँ जिनमें जीवों का निवास हो; कमलककड़ी; अनन्तकाय लता, सूरण आदि बिना दले मूंग, उड़द चना आदि, साबुत फलियाँ | 23 ये सब हिंसा के दोष से दूषित हैं ।
5. हिंसक प्राणियों का पोषण एवं हिंसा के उपकरणों का दान नहीं देना - अहिंसा के आराधक को मोर, मुर्गा, बाज, बिलाव, साँप, नेवला आदि हिंसक जन्तुओं को नहीं पालना चाहिए। उन्हें विष, कॉटा, शस्त्र, आग, कोड़ा, जाल, रस्सा आदि हिंसा के साधनों का दान भी नहीं करना चाहिए। अन्य भी जो वध, बन्धन एवं संरोध ( पशुओं को घेरे रखने के साधन हैं, उनको भी नहीं देना चाहिए। इन्हें करने से निष्प्रयोजन पाप लगता है। ये सब अनर्थदण्ड कहे गये हैं । अहिंसा के पालन में बाधक होने के कारण इन्हें त्याज्य माना गया है । अन्य भी अनेक कार्य जो अहिंसा की साधना में बाधक हैं, उन्हें त्याज्य समझना चाहिए ।
अहिंसा - व्रती की भावनायें- अहिंसा व्रती को मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना को सतत जागरूक रखना चाहिए । इस सन्दर्भ में श्री सोमदेवसूरि का कहना है कि अहिंसा के आराधक को सव जीवों से मैत्रीभाव रखना चाहिए । दुःखी जीवों के प्रति करुणाभाव रखना चाहिए और जो निर्गुण, असभ्य एवं उद्दण्ड हों उनके प्रति माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। किसी भी जीव को दुःख न हो, मन-वचन-कर्म से ऐसे व्यवहार को मैत्री कहते हैं । तप आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष को देखकर विनयपूर्ण स्नेह के उमड़ने का नाम प्रमोद है । दयालु पुरुषों द्वारा गरीबों के उद्धार करने की भावना को कारुण्य कहते हैं । उद्दण्ड एवं असभ्य पुरुषों के प्रति राग-द्वेष के अभाव का नाम माध्यस्थ है। जो गृहस्थ इन भावनाओं को भाता है, स्वर्ग तो उसके हाथ में है ही, मोक्ष भी उससे दूर नहीं है । उसे शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है 1 28
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