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अनेकान्त 59 / 1-2
प्रायश्चित्त-विधान - कभी-कभी गृहस्थों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रमादवश जीवों की विराधना हो जाती है । तज्जन्य हिंसा के दोष के निवारणार्थ जैन शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। श्री सोमदेवसूरि का कथन है कि मद से अथवा प्रमाद से दो इन्द्रिय आदि सजीवों का घात हो जाने पर दोष के अनुसार आगम में कथित विधिपूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए। 27
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उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्री सोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन में अहिंसा का जो विवेचन किया है, वह एक सद्गृहस्थ के लिए आवश्यक है । उनका यह विवेचन गृहस्थ के लिए सहज ग्राह्य तो है ही, तार्किक शैली अपनाने के कारण वह उनके थोथे तर्कों का भी सयुक्तिक समाधान करता है, जो किसी न किसी रूप में हिंसा की वकालत करते हैं ।
सन्दर्भ सूची :
1. तत्त्वार्थसूत्र, 7/13, 2. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 44, 3. परमात्मप्रकाश, टीका 2/68, 4. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 53, 5. उपासकाध्ययन, 303-304, 6. वही, 264-265, 7. वही, 268-274, 8. धम्मपद, दण्डवग्ग, 1-2, 9. उपासकाध्ययन, 267, 277, 10. वही, 285 288, 11. वही, 289-291, 12. वही, 294, 305 (द्रष्टव्य-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 80-81), 13. वही, 297, 14. वही, 325-326, 15. वही, 296,
16. 'अविधायापि हि हिंसां हिंसाफल भाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ।।'
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 51
17. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 18. उपासकाध्ययन, 346-348, 19. वही, 316 का पूर्वार्द्ध, 20. वही, 256-280, 21. वही, 281, 22. वही, 310, 23. वही, 312-315, 24. वही, 419-422, 25. वही, 319-323, 26. वही, 334
429, पटेल नगर मुजफ्फर नगर (उ.प्र.)