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________________ 'केवलज्ञान' एक विश्लेषण -पं. पंकज जैन 'ललित' केवलज्ञान उस अगाध एवं असीम ज्ञान सिंधु का नाम है जो अनन्त एवं सर्वव्यापी है। केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष एवं त्रिकालदर्शी है। आचार्य उमास्वामी ने लिखा है “मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्" तत्त्वार्थसूत्र 1/9 केवलज्ञान को सबसे अन्त में रखने के विशेष उद्देश्य को प्रकट करते हुए आ. अकलंक देव ने तत्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है“अन्ते केवलग्रहणम् ततः परं ज्ञानप्रकर्षाभावात्" -तत्त्वार्थराजवार्तिक 1/9/19 अन्त में केवलज्ञान को ग्रहण किया है क्योंकि इससे उत्कृष्ट ज्ञान का अभाव है। सर्व ज्ञानों के परिच्छेदन में केवलज्ञान ही समर्थ है। केवलज्ञान सभी ज्ञानों को जानता है परन्तु केवलज्ञान को जानने का सामर्थ्य किसी ज्ञान में नहीं है। इसीलिए केवलज्ञान से उत्कृष्ट कोई ज्ञान नहीं है। केवलज्ञान का लक्षण : केवलज्ञान के व्युत्पत्ति अर्थ एवं उसके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आ. पूज्यपाद ने लिखा है-“बाह्ये सेवन्ते तत्केवलम्" सर्वा. सि. 1/9/14 अर्थात्-अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और अभ्यंतर तप के द्वारा मार्ग का केवन अर्थात सेवन करते हैं, वह केवलज्ञान कहलाता है। इसी प्रकरण में आ. पूज्यपाद ने केवलज्ञान की व्याख्या करते हुए लिखा है"असहायमिति वा' अर्थात्-असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। असहाय शब्द को आ. पूज्यपाद ने एक विशेषण के रूप में प्रयोग
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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