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________________ अनेकान्त 59/1-2 किया है। इस विशेषण को ठीक प्रकार से समझने के लिए आ. गुणधर कृत कषाय पाहुड का यह व्याख्यान दृष्टव्य है "केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात्। ...आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम्।" कषाय पाहुड 1/1, 1 प्रकरण सं.-15 असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित होता है। इसीलिए केवलज्ञान को असहाय ज्ञान कहा जाता है। केवल असहाय को कहते हैं। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है। त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से समवाय सम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है। असंकुचित अर्थात् सर्व व्यापक है और असपल अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है; उसे केवलज्ञान कहते हैं। आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला में लिखा है “केवलमसहायमिदिया लोयणिखेखं तिकालगोयराणंत पज्जाय समवदाणं तवत्थुपरिम संकुडियम सवत्तं केवलणाणं" केवलज्ञान उत्पत्ति का कारण : केवलज्ञान को प्राप्त करने के लिए आत्मा के अनंत ज्ञान गुण को ढकने वाले ज्ञानावरण कर्म को पूर्ण रूप से नष्ट करना आवश्यक है। लेकिन केवलज्ञान प्राप्ति हेतु आत्मा को कुछ अन्य कर्मों एवं कर्म प्रकृतियों का भी क्षय करना आवश्यक है। केवलज्ञान प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए आ. उमास्वामी ने लिखा है कि"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलम्"-त. सू 10/5 मोहनीय कर्म का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय होने से तथा 'च' शब्द से तीन आयु और तेरह नाम कर्म की प्रकृतियों का क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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