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________________ अनेकान्त 59/3-4 से सल्लेखना विधि को करते हैं उन्हें दान, पूजा, तप, और शील का फल प्राप्त होता है। श्री जिनेन्द्र देव के धर्म के जानकार सन्त जन, मन वचन, काय की शद्धि से सर्व परिग्रह को छोड़कर तथा रागन्द्वेषादि भावों को त्याग कर त्रियोग से क्षमापूर्वक अमृत वचनों को कहकर सभी को सन्तुष्ट करे तथा जीवन और मरण की सर्व चिन्ता को छोड़कर कर्म करने वाला विरक्त साधु सब सुख शीलता को मन वचन काय से त्याग कर जब भावों में आरोहण करता है तब वह इस प्रकार विचार करता सल्लेहणं करेंतो सव्वं सुहशीलयं पयहिदूण। भाव सिदि मारू हित्ता विहरेज्ज सरीर णिव्वण्णो ॥ 174 म. आ. अर्थात् इस सुलभ असार अपवित्र, कृतन भाररूप रोगों का घर और जन्म मरण से युक्त दुःखदायी शरीर से क्या लाभ है? इस प्रकार शरीर में निस्पृहभाव रखकर साधु समाधिमरण धारण करता है। वह बैठना सोना भोजन आदि सुख भावना को छोड़कर श्रद्धानादि परिणामों का आश्रय लेता है। जिस प्रकार योग्य शिक्षा को प्राप्त अश्व भ्रमण लंघन आदि के कष्ट सहने का अभ्यासी युद्धभूमि में सवारी ले जाने का कार्य करता है उसी प्रकार पूर्व में तप करने वाला, विषय-सुख से विमुख जीव मरते समय समाधि का इच्छुक हुआ निश्चय से परीषह को सहनेवाला होता है। पुव्वं कारिदजोगो, समाधिकामो तहा मरणकाले। होदि हु परीसहो, विसयसुह परम्मुहो जीवो॥ म.आ. 195 सल्लेखना दो प्रकार की होती है, (i) आभ्यन्तर (ii) बाह्य 1 बाह्य सल्लेखना शरीर के विषय में होती है। बल को बढ़ाने वाले सभी रौ को त्याग कर प्राप्त हुए आहार से कोई एक विशेष नियम लेकर शरीर को क्रम से कृश करता है। शरीर को कृश करने के लिए वह छह प्रकार के बाह्य तपों को करता है। अनशन अवमौदर्य रसों का
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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