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समाधिमरण में शुद्धि व विवेक विवेचन
प्राचार्य (पं.) निहालचंद जैन. “सम्यक्प्रकारेणकायकषाय कृशीकरणं सल्लेखना” अर्थात् भली प्रकार विवेकपूर्वक काय और कषाय को कृश करने को सल्लेखना कहते
सल्लेखनां करष्येिऽहं विधिना मारणान्तिकीम् । अवश्यमित्यदः शीलं सनिदध्यात्सदा हृदि ॥ सहगामि कृतं तेन धर्मसर्वस्वमात्मनः। समाधिमरणं येन भवविध्वंसि साधितम् ॥ 57-58 ॥
सागारधर्मामृत पृष्ठ-76 मरण समय में अर्थात् तद्भवमरण के अन्त में होने वाली सल्लेखना को मारणान्तिकी- सल्लेखना कहते हैं। मरण दो प्रकार का होता हैप्रतिक्षण मरण और तद्भवमरण। सल्लेखना में जो मरण होता है, वह तद्भवमरण होता है। गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों की तरह सल्लेखना को भी शील माना गया है। जिसने संसार परिभ्रमण नाशक समाधिमरण साध लिया उसने अपने धर्म के सर्वस्व रत्नमय को परभव के लिए सहगामी बना लिया है। जो समाधिमरण को अंगीकार करता है वह क्षपक कहलाता है तथा जो आचार्य या मुनि समाधिकर्ता (समाधि कराने वाला) होता है वह निर्यापकाचार्य या निर्यापक मुनि कहलाता है। बारह व्रत पालन करने वाले श्रावक को अथवा मुनि को जीवन के अन्त में धीर वीर चित्तपूर्वक सल्लेखना को धारण करना चाहिए।
महान् उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष पड़ने पर ठीक न होने वाला भंयकर रोग से ग्रसित होने पर और बुढ़ापा आदि के आ जाने पर सन्त जनों को तल्लेखना धारण करना चाहिए। जो सज्जन पुरुष उत्तम प्रकार