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अनेकान्त 59/3-4
शिथिलाचार से उत्पन्न बदनामी के भंवर में डूब जायगी। इस सन्दर्भ में जो जांच समिति बनी थी उसके एक सम्मानित सदस्य अभी हैं, जिन्होंने अन्तिम समय तक जाँच को सार्वजनिक करने की बात कही थी लेकिन अन्य सदस्यों के दबाव के चलते वे अन्ततः तटस्थ हो गए थे। इन प्रसंगो को देखकर तो ऐसा लगता है कि तथाकथित कट्टर बीसपंथ के मानने वाले आज दोहरी मानसिकता से दो-चार हैं। एक ओर वे आधुनिक होने का दम्भ पाल बैठे हैं और स्वयं की परम्पराओं को प्रश्रय देने वालों का आंख बन्द कर समर्थन करते हैं तो दूसरी ओर जायज और आवश्यक कार्यो को अंजाम देने वालों के प्रति विष-वमन करते हैं या करवाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ परम्परा और समाज के लिए घातक
हैं।
तेरह और बीस का झमेला तो बहुत थोड़ा है। तथाकथित समाज के हितैषी अखिल भारतीय स्तर के नेता लोग अपनी-अपनी मर्यादा में रहे तो तेरह-बीस का झगड़ा उत्पन्न ही नहीं होगा। मुझे याद आती है अयोध्या के बावरी मस्जिद-राम जन्मभूमि प्रकरण की। अयोध्या फैजाबाद के स्थानीय लोगों का मन्तव्य था कि यह मामला स्थानीय है, इसे स्थानीय लोगों को ही सुलझाने देना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय स्तर के महामना नेताओं को चैन नहीं पड़ा और जो कुछ भी हुआ वह सबके सामने है। बाद में पुरातत्व वालों ने जब खुदाई की तो जो चिह्न मिले वे न तो बाबरी मस्जिद के थे और न राम मंदिर के, जैन परम्परा के चिह्न मिलते ही खुदाई रुकवा दी गई। क्या बीसपंथियों या संस्कृति रक्षा का दग्भ करने वाले इसे सही अंजाम देने के लिए आगे आए या उन्होंने सरकार को विवश किया कि पूरा मामला साफ होना चाहिए और उस स्थल को जैनों को सौंपा जाना चाहिए।
लाला जी! मेरे जेहन में कई ऐसे संदर्भ हैं जब शीर्ष नेताओं में मात्र अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए तथा स्वार्थ सिद्धि के लिए कभी तथाकथित शुद्धाम्नायी बने तो कभी महासभाई। महासभा की नीतियों के कट्टर समर्थक भी तथाकथित शुद्धाम्नायी की छत्र छाया में उपस्थित होते हुए देखे जाते हैं। आज तो कभी अपने आप को शुद्धाम्नायी