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अनेकान्त 59/3-4
का प्रायोजन बीसपंथ की समर्थक साध्वी हैं। एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान से जब मैनें यह पूछा कि आपने इसका समर्थन कैसे कर दिया तो उनका उत्तर था यदि क्षेत्र का विकास इसी ब्याज से हो रहा है तो हम क्यों आपत्ति करें।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा - लाला जी! आज सारे भारत में घूम आयें तेरहपंथी हो या बीसपंथी, प्रतिदिन की पूजा में अचित्त सामग्री का ही बहुतायत प्रयोग होता है। भट्टारक परम्परा ने अपने चैत्य - चैत्यालयों की रक्षा के निमित्त ही सम्भवतः हिन्दु परम्परा में प्रचलित सचित्त पूजा पद्धति को आत्मसात् करते हुए उसे प्रचलित कर दिया होगा। पूजन पद्धति में प्रयोजनीय सामग्री आज बीसपंथ परम्परानुसार सबके लिए प्रतिदिन सम्भव नहीं। दक्षिण की बात और है, वहाँ तो आज भी पूजन का मुख्य कार्य पूजारी के माध्यम से होता है, शेष सब मात्र अनुमोदनार्थ उपस्थित रहते हैं। उत्तर भारत में तो पूजनार्थी स्वयं पूजन को उद्यत होता है। दूसरे जरा दक्षिण के गर्भालयों की स्थिति को आपने देखा होगा कि वहाँ कितना गहन अन्धकार और दीपक की लौ की कालिमा व्याप्त रहती है। खैर, हम भी वहाँ जाकर दर्शन पूजन करते हैं। अभी श्रवणबेलगोला में प.पू. भट्टारक स्वामी जी की उपस्थिति में हम सभी विद्वानों ने भण्डार-वसदि के जिन मूर्तियों का पंचामृत अभिषेक देखा था उन्होंने जलाभिषेक के बाद स्पष्ट घोषणा कर दी कि जो पंचामृत अभिषेक मात्र देखना चाहें नीचे आकर देखें। यह थी भट्टारक जी की समन्वयात्मक दूर-दृष्टि। न दबाव और न परम्परा की दुहाई। परम्परा की रक्षा और उसकी दुहाई देने वालों की बानगी देखिये- लाला जी! अभी कुछ साल पहिले एक प्रतिष्ठित आचार्य जब यौन उत्पीड़न के मामले में फंसे और बहचर्चित हए तो महासभा के शीर्षस्थ नेता से संयोग से मेरी भेंट हो गई। उन्होंने अचानक प्रश्न उछाला अब क्या करें? मामला तो संगीन है। यदि इसे दबाने का प्रयास न किया गया तो साधु - संस्था बदनाम हो जायगी। साधुओं का निर्बाध आवागमन बाधित होगा। हमें तो साधु संस्था की बात सोचनी चाहिए, परम्परा खण्डित न हो। तब मैंने उन्हें कहा था - कभी न कभी तो सख्त कदम उठाने होगें अन्यथा साधु-संस्था