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अनेकान्त 59/3-4
प्रमाणवृत्ति का उल्लेख किया गया है। दोनों सांख्ययोग दर्शनों में बुद्धिनिष्ठ ज्ञान प्रमाण और पुरुषनिष्ठ ज्ञान को प्रमा कहा गया है। इस तरह न्यायवैशेषिक दर्शन में इन्द्रिय सन्निकर्ष को और सांख्ययोग दर्शन में इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण माना गया है। जैनतार्किकों की दृष्टि में सन्निकर्ष और इन्द्रियवृत्ति अचेतन अज्ञान रूप होने से अपने विषय की प्रमिति के प्रति साधकतम नहीं हो सकती। अपने विषय की प्रमिति के प्रति साधकतम ज्ञान ही हो सकता है। मीमांसा दर्शन में प्रभाकर मतवाले अनुभूति और ज्ञातृव्यापार को प्रमाण कहते है। भाट्ट परम्परा में अज्ञात और यथार्थ अर्थ के निश्चायक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। वेदान्त दर्शन में भी इसी तरह अबाधित अर्थ विषयक ज्ञान को प्रमा एवं उसके करण को प्रमाण माना गया है। जैनाचार्यो की दृष्टि में एक ही अर्थ की अनुभूति विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों को अपनी-अपनी भावना के अनुसार विभिन्न प्रकार की होती हैं। इसलिए अनुभूति को कैसे प्रमाण माना जा सकता है। ज्ञाता का व्यापार वस्तु के यथार्थ प्रतिबोध में कारण नहीं होता, जिससे विपरीत दिखाई देता है। इसलिए ये प्रमाण के लक्षण सदोष हैं।
प्रमाण भेद की ऐतिहासिक परम्परा
दिगम्बर आगमिक साहित्य में कुन्दकुन्द तक पंचज्ञानों की विस्तृत चर्चा पाई जाती है। तथा उनके प्रत्यक्ष परोक्ष भेद भी पाये जाते हैं, परन्तु उनका प्रमाणों में वर्गीकरण नहीं पाया जाता। कुन्दकुन्द के बाद सूत्रकार उमास्वामी ने प्रमाण का निर्वचन करने के साथ ज्ञानों का प्रत्यक्ष
और परोक्ष रूप में वर्गीकरण भी किया। उन्होंने मति और श्रुत को परोक्ष प्रमाण तथा अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा। यह विभाजन आगमिक परम्परा से हटकर प्रतीत होता है, परन्तु समीक्षक विद्वानों की दृष्टि में यह विभाजन उनके द्वारा अन्य दर्शनों के प्रमाण निरूपण के साथ मेल बैठाने और आगमिक समन्वय के लिए ज्ञानकरणों की सापेक्षतता और निरपेक्षता पर आधारित था। मति,