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________________ अनेकान्त 59/3-4 25 के बाद हुए दिङ्नाग से पूर्व प्रमाण विवेचन को प्रमुखता नहीं दी गयी है। दिङ्नाग ने सर्वप्रथम अज्ञात अर्थ के प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण बताकर प्रमाण की परिभाषा दी। तत्पश्चात् धर्मकीर्ति ने अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण और अर्थक्रियाकारित्व को अविसंवाद कहा। वस्तुतः इस परम्परा के विज्ञानवादी दार्शनिकों द्वारा बाह्य अर्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए ज्ञानगत योग्यता ही उनके मत में प्रमाण हैं एवं स्वसंवेदन उसका फल। सौत्रान्तिक मत में बाह्य अर्थ की सत्ता को स्वीकार किया गया है, इसलिए ज्ञानगत अर्थाकारता या सारूप्य को प्रमाण का फल माना गया है, परन्तु दोनों एक ज्ञान के धर्म माने गये है। इस तरह जैनदर्शन के सामने बौद्धदर्शन में ज्ञान को प्रमा के साधकतम रूप में प्रमाण माना गया है, पर जैन नैयायिकों की दृष्टि में बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञानगत सारूप्य, ज्ञानस्वरूप होने पर भी ज्ञान का विषयाकार होना किसी भी तरह सम्भव नहीं है, क्योंकि अमूर्तिक ज्ञान मूर्तिक पदार्थो का आकार ग्रहण नहीं कर सकता। उमास्वामी के समकालीन वैशेषिकदर्शन के प्रणेता कणाद ने निर्दोष विद्या को प्रमाण के रूप में स्वीकृत किया है। उन्होंने इन्द्रिय दोष तथा संस्कार दोष से उत्पन्न अयथार्थ ज्ञान को दुष्ट या अविद्या कहा है। उनका यह प्रमाण लक्षण कारणमूलक था। न्यायसूत्रकार गौतम ने प्रमाण के लक्षण का निर्दोष कथन नहीं किया है। किन्तु उनके भाष्यकार वात्स्यायन ने उपलब्धि के साधन को प्रमाण कहा है। उन्होंने प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः कहकर करण अर्थ में प्रमाण शब्द की निष्पन्नता बताई है। न्यायदर्शन में इस तरह कारण शुद्धि से हटकर उपलब्धि रूप फल को प्रमाण का लक्षण माना गया है। ईसा की तीसरी शती के विद्वान् ईश्वरकृष्णकृत सांख्यकारिका सांख्यदर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ माना गया है। जिसमें प्रमाण के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं है, उसमें मात्र तीन प्रकार के प्रमाणों का ही निर्देश किया गया है। सांख्यकारिका के टीकाकार वाचस्पति मिश्र ने प्रमाण को प्रमा का साधन कहा है, जो बुद्धि या चित्त का धर्म माना गया है। योगदर्शन में भी प्रमाण के स्वरूप का प्रतिपादन न होकर पांच प्रकार की वृत्तियों में
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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