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अनेकान्त 59 / 1-2
सर्व क्षणिक, सर्व अनात्म' सिद्धांतों की भित्ति अनात्मवाद के ही ऊपर स्थित है । बुद्ध के अष्टांग मार्ग में भी आत्मा का कहीं नाम नहीं आता । वहाँ केवल यही बताया गया है कि मनुष्य को सम्यक् आचार-विचार से ही रहना चाहिये । इतना ही नहीं, बल्कि बुद्ध ने स्पष्ट कहा है कि मैं नित्य आत्मा का उपदेश नहीं करता, क्योंकि इससे मनुष्य को आत्मा ही सर्वप्रिय हो जाती है और उससे मनुष्य उत्तरोत्तर अहंकार का पोषण कर दुःख की अभिवृद्धि करता है । इसलिये मनुष्य को आत्मा के झमेले में न पड़ना चाहिये इसी बात को तत्त्वसंग्रहपंजिकाकार ने कितनी सुन्दरता से अभिव्यक्त किया है:
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साहंकारे मनसि न शमं याति जन्मप्रबंधो। नाहंकारश्चलति हृदयादात्मदृष्टौ च सत्यां ।। अन्यः शास्ता जगति भवतो नास्ति नैरात्म्यवादी ।। नान्यस्तस्मादुपशमविधेस्त्वन्मतादस्ति मार्गः ॥
यही कारण है कि बुद्ध ने आत्मा आदि को 'अव्वाकत' ( न कहने योग्य) कहकर उसकी ओर से उदासीनता बताई है।
यहां बौद्धों का आत्मा के विषय में क्या सिद्धांत है, इस पर कुछ संक्षेप में कहना अनुचित न होगा। बौद्धों का कथन है कि रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पंच स्कंधों को छोड़कर आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है। इस विषय पर 'मिलिन्दपञ्ह' में जो राजा मिलिन्द और नागसेन का संवाद आता है, उसका अनुवाद नीचे दिया जाता है:
" मिलिन्द - भन्ते, आपका क्या नाम है ?
नागसेन - महाराज, नागसेन । परन्तु यह व्यवहार मात्र है, कारण कि पुद्गल (आत्मा) की उपलब्धि नहीं होती ।
मिलिन्द - यदि आत्मा कोई वस्तु नहीं है, तो आप को कौन पिंडपात (( भिक्षा) देता है, कौन उस भिक्षा का भक्षण करता है, कौन शील की रक्षा करता है, और कौन भावनाओं का चिन्तन करने वाला है? तथा