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अनेकान्त 59/1-2
कर्मणा जातिव्यवस्था का सूत्र मान लिया जाये तो विषमता मिट सकती है। क्योंकि एक परिवार में भी चारों वर्ण हो सकते हैं। तब घृणा, ऊँच-नीच या छुआछूत का कोई स्थान रहेगा ही नहीं। राजनीति की धर्मविहीनता ने राष्ट्र का जो नुकसान किया है, वह अकथनीय है। आज नेता से प्रजा का और प्रजा से नेता का विश्वास उठ गया है। फलतः जनतन्त्र में भी शासक और शासित की धारणा पुनः बलवती होती जा रही है। इस समय धर्म-विहीन राजनीति चौराहे पर खड़ी उस वेश्या के समान हो गई है, जिसका अपना कोई नहीं होता है तथा वह भी किसी की नहीं होती है। अतः सभी क्षेत्रों में समता की विचारणा की आवश्यकता है। फल तो व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ से ही प्राप्त हो सकता है।
धर्म और जीवन का गहरा सम्बन्ध है। धर्महीनता जीव को शव और धर्म जीव को शिव बना देता है। धर्म की संरक्षा में नारियों का विशिष्ट महत्त्व है। क्योंकि पारंपरिक तौर पर नारियों का मुख्य क्षेत्र गृहस्थी माना जाता है। नारी गृहस्थी की धुरी है। भ. महावीर का संघ चतुर्विध था। उसमें साधुओं की संख्या 14 हजार थी तो साध्वियों की 36 हजार। श्रावक कुल 1 लाख 59 हजार थे तो श्राविकायें 3 लाख 18 हजार थीं। कुल मिलाकर नारियों की संख्या दुगुनी से भी 8 हजार अधिक है। कालान्तर में नारी दुरवस्था को प्राप्त हो गई। यदि मानवधर्म की पुनर्प्रतिष्ठा करना है तो नारी को शिक्षित और सशक्त बनाने की आवश्यकता है। जब नारी धर्म के मर्म को हृदयंगम कर लेगी तो वह मानवमात्र को प्रेम के धागे में बाँध सकेगी तथा भावी सन्तान को ऐसे संस्कार दे सकेगी जिससे जगत् में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना बलवती होगी।
धर्म में प्रतिपादित 'परस्परोपग्रहो' की भावना से ही मानव का अस्तित्व कायम है। इस भावना की कमी ने पर्यावरण में असंतुलन पैदा