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________________ अनेकान्त 59/1-2 जीव हैं, उनके नाना कर्म हैं और उनमें नाना योग्यतायें हैं अतः चाहे वे स्वधर्मी हों या अन्यधर्मी, उनके साथ विवाद मत करो। विषमता चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में हो या आर्थिक क्षेत्र में हो; वह कल्याण में बाधक है। अर्जन की शुद्धि, संग्रह की सीमा और उपभोग का सयम आर्थिक समता ला सकता है तो मानवमात्र को अपने समान मानना सामाजिक समता उत्पन्न कर सकता है। जन्मना जाति में विश्वास समता का विखण्डक विषमतापूर्ण सिद्धान्त था। किसी कारणवश इस सिद्धान्त ने समाज में जड़ें जमा लीं थीं। भगवान महावीर ने इसका विरोध किया। उन्होंने प्रचलित जातियों को अस्वीकृत नहीं किया किन्तु आचरण या कार्य के आधार पर मानने का सूत्र प्रतिपादित किया। आचार्य जिनसेन ने स्पष्ट घोषणा की है कि मनुष्य जाति एक ही है। मात्र आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो जाती है। व्रतसंस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र कहा जाता है। अमितगति आचार्य कहते हैं कि ब्राह्मणादि की भेदकल्पना आचारमात्र से है कोई जाति नियत नही है। सदाचारी शूद्र भी शील, संयम आदि गुणों से स्वर्ग प्राप्त कर सकता है और दुराचारी ब्राह्मण भी कुशील एवं असंयम आदि दुर्गुणों से नरक जा सकता है। अन्य धार्मिक विचारधाराओं में भी ऐसी मान्यातायें हैं, पर उनके सम्यक् समुद्घाटन की आवश्यकता है। जातिवाद एवं वर्गवाद के प्रति दृष्टिकोण के परिवर्तन से अमानवीय व्यवहार घटेंगे, छुआछूत जैसी बीमारी समाप्त होगी तथा मानवधर्म की प्रतिष्ठा होगी। श्री रविषेणाचार्य ने सभी जातियों को समान मानते हुए कहा है "न जातिः गर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम् । व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवाः ब्राह्मणं विदुः।।" आज राजनीतिक गिरावट का प्रमुख कारण जातिवाद के समापन के नाम पर दिया जा रहा जातिवाद एवं वर्गवाद का बढ़ावा ही है। यदि
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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