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________________ अनेकान्त 59/1-2 किया है। प्रकृति के सभी घटक मानब का उपकार करते हैं मानव भी प्रकृति के सभी घटकों का उपकार करता हैं। प्रारंभ से ही जीवन और प्रकृति के मध्य गहरा संबंध रहा है। जैन धर्म में निष्प्रयोजन पृथ्वी को खोदने, पानी को बहाने, अग्नि को जलाने, वायु का संचार करने तथा वनस्पतियों को काटने में पाप माना गया है। गृहस्थों को आवश्यकता से अधिक इनके उपयोग का निषेध किया गया है। यदि मानव अपना धर्म मानकर इनका दुरुपयोग छोड़ दे तो पर्यावरण असंतुलन की समस्या स्वतः ही समाप्त हो जायेगी तथा मानव अपना विनाश स्वयं करने से बच सकेगा। वेदान्त के अनुसार पर्यावरण के सभी घटक ब्रह्म के ही अंश है। जैनाचार्यों ने भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति को एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की श्रेणी में रखा है। जैनाचार्यों की यह अवधारणा प्रकृति के घटकों की संरक्षा का सुदृढ़ उपाय है। जैनाचार्यों ने न केवल मानव के प्रति अपितु जीवमात्र के प्रति मित्रता की कामना की है। जैन धर्म का उद्घोष है “खम्मामि सव्वजीवाणं सब्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।।" “सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।" दुराग्रह और हठवादिता मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। मैं जो कहता हूँ, वही सच है-यह कथन हठ का द्योतक है। जो दूसरा कहता है वह भी सापेक्ष सत्य हो सकता है। एक वस्तु में अनेक धर्म या गुण हैं। उनका कथन अनेक प्रकार से हो सकता है। एक वस्तु में सापेक्षता से विरोधी धर्म भी रह सकते हैं। एक व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्र की अपेक्षा पिता है। अतः उसमें पितृत्व एवं पुत्रत्व दोनों विरोधी धर्म एक साथ रह सकते हैं। हठवाद नहीं अपनाना चाहिए। हठवाद अधर्म है और वह मानव-कल्याण में बाधक है। 'ही' के स्थान
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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