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________________ अनेकान्त 59/3-4 ____ 2. साक्षात् कर्म क्षय का हेतु शुक्लध्यान :- 'शुचि गुणयोगाच्छुक्लम्' अर्थात् शुचि गुण के योग से शुक्ल होता हैं। ___- कर्म क्षय एवं अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हेतु योगी मुनिराज धर्म ध्यान को छोड़कर आत्यन्तिक शुद्धि का आश्रय लेकर अतिशय निर्मल शुक्ल ध्यान को प्रारम्भ करते है। यह बज्रवृर्षभनाराच संहनन युक्त होता है। जो चित्त क्रिया से रहित, इन्द्रियों से अतीत और ध्यान-धारण से विहीन होकर अन्तर्मुखी हो जाता है- समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है- उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं। यह ध्यान निर्मलता तथा कषायों के क्षय या उपशम हो जाने के कारण वैडूर्यमणि के समान अतिशय निर्मल व स्थिर होने के कारण शुक्ल ध्यान कहा गया है, जो सातवें गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में होता है और शुद्धोपयोग रूप है। शुक्ल ध्यान भी चार प्रकार का होता है 1. पृथक्त्व अवितर्क सविचार (पृथक्त्ववितक) 2. एकत्व अवितर्क अविचार (एकत्ववितक) 3. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती और 4. व्युपरत क्रिया निवर्ति। प्रथम दो शुक्ल ध्यान छद्म योगियों अर्थात् क्रमशः उपशांत मोही और क्षीण मोही के तथा अंत के दो शुक्ल ध्यान अठारह दोष रहित केवलज्ञानियों के होते हैं। इन चार शुक्ल ध्यानों में प्रथम ध्यान मन, वचन और काय इन तीन योग वालों के दूसरा तीन योगों में से किसी एक योगवाले के तीसरा काय योग वालों के चौथा योग से रहित केवलियों के होता है। पूर्व के दो शुक्लध्यान श्रुत ज्ञान के, विषय के सम्बन्ध से श्रुत के आश्रय से होते हैं। वितर्क श्रुतज्ञान रूप है। और वीचार अर्थ व्यजन और योगों की संक्राँति-परिर्वन का सूचक है। अंत के दो ध्यान जिनेन्द्र देव के सब प्रकार के आलम्बन से रहित होते हैं। पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान में योगी एकाग्र चित्त हो कर एक अर्थ से दूसरे अर्थ का एक वचन से दूसरे वचन का, एक योग से दूसरे योग का तथा एक पर्याय से दूसरी पर्याय का आलंबन लेता हुआ एक द्रव्य
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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