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अनेकान्त 59/3-4
परमाणु से अन्य द्रव्य परमाणु का चिन्तन करता हआ महाकर्म का उपशम या क्षय करता है। इस प्रकार मोह क्षीण एंव कषायें शांत होने पर निर्मल मन युक्त योगी एकत्व वितर्क ध्यान योग्य हो जाता है। जिस शुक्ल ध्यान में योगी बिना खेद के एक द्रव्य, एक परमाणु और एक पर्याय का एक ही योग के द्वारा चिन्तन करना है, वह एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान कहलाता है। इस अतिशय निर्मल ध्यान रूप अग्नि के वृद्धिंगत होने पर योगी के घातिया कर्म क्षण भर में भस्म हो जाते हैं
और योगी तेरहवें गुण स्थान सयोग केवली हो जाता हैं। उसका केवल ज्ञान सूर्य उदित होकर लोकालोक को प्रकाशित करने लगता है। इस प्रकार शुद्धोपयोग रूप परम आत्म ध्यान से चार घातिया कर्मों की सर्व सेंतालीस आयुकर्म की तीन एवं नाम कर्म की तेरह, कुल तिरेसठ कर्म प्रकृतियों का क्षय कर तीर्थकर /केवली के रूप में त्रिलोक पूज्य हो जाते
सर्वज्ञ प्रभु अंतर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर तृतीय- सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्ल ध्यान के योग्य होते हैं और वे वेदनीय नाम और गोत्र की स्थिति भी अंतरमुहूर्त रहने पर सूक्ष्य काय योग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती ध्यान प्रारम्भ करते हैं। इससे चार अधातिया कर्मों की स्थिति समान हो जाती है। इससे अयोग कवली दुर्जय बहत्तर कर्म प्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त होती है। फिर उसी क्षण व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान प्रकट होता हैं जिससे वीतरागी प्रभु की अवशेष तेरह कर्म प्रकृतियाँ शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जाती हैं और अयोग प्रभु आत्मा स्वरूप की सिद्धि को प्राप्त कर चौदहवें गुण स्थान में पाँच (अ इ उ ऋ ल) ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल प्रमाण स्थित रहकर कर्म बधं से मुक्त हो सिद्धालय हेतु स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करते हैं।
प्रशस्त ध्यान की महत्ता
उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यद्यपि आभ्यंतर और बाह्य तप