________________
अनेकान्त 59/3-4
छह छह प्रकार के है; किन्तु कर्मक्षय अंततः आत्मध्यान एवं शुक्ल ध्यान से ही होता है। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार जो कर्म अज्ञानी लक्ष कोटि भवों में खपाता है वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार से गुप्त (त्रिगुप्ति) होने से उच्छ्वास मात्र में खपा देता है (प्र.सार गा.238) आचार्य यति वृषभ के अनुसार जिस प्रकार चिर संचित ईधन को पवन युक्त अग्नि जला देती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि बहुत भारी कर्म ईधन को क्षण मात्र में जला देती है (तिलोय पण्णति 22)। रागादि परिग्रह से रहित मुनि शुक्ल ध्यान द्वारा अनेक भवों के संचित कर्मो को शीघ्र जला देता है (तिलोय. 64) जो दर्शन मोह और चारित्र मोह को नष्ट कर विषयों से विरक्त होता हुआ मन को रोककर आत्म स्वभाव में स्थित होता है, वह कर्म बंध तोडकर मोक्ष सुख पाता है (तिलोय. 23/48)। इस दृष्टि से आत्म ध्यान एवं शुद्धोपयोग रूप शुक्ल ध्यान कर्मक्षय की अचूक ओषधि है जिसमें धर्म ध्यान शुभोपयोग रूप साधक का कार्य करता है। ऐसी पवित्र ध्यान आत्मध्यान सभी को इष्ट हो यही कामना है।
समग्र रूप से विश्व की सभी जीवात्मायें अपना ज्ञातादृष्टा अकर्ता-अभोत्ता निर्ममत्व स्वरूप समझ कर स्व-स्वरूप में अपनत्व स्थापित कर तथा स्व-स्वरूप के शुद्ध-ध्यान (शुद्धोपयोग रूप) में स्थित-लीन होकर स्वयं अपने ही पुरुषार्थ से बिना किसी पर की अपेक्षा किये हुये, विकार, विभावों एवं जड़ कर्मबन्धनों से मुक्त होकर सिद्ध परमात्मा हो सकती है। यह सब आत्म-ध्यान का ही फल है।
बी 369, ओ.पी.एम. कालोनी
अमंलाई पेपरमिल अमलाई शहडोल (म.प्र.)