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अनेकान्त 59 / 1-2
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरिस रुजायां च निः प्रतिकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्या ।।
प्रतिकार रहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा और रोग के उपस्थित हो जाने पर धर्म के लिये शरीर के छोड़ने को गणधर देव सल्लेखना कहते हैं । सल्लेखना दो प्रकार से की जाती है-काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना । आहार आदि का शरीर की स्थिति देखकर क्रम-क्रम से त्याग करके शरीर कृश करना काय सल्लेखना है और संसार शरीर और भोगों से विरक्त होता हुआ जो कषायों को कृश किया जाता है वह कषाय सल्लेखना कहलाती है । मरण प्रकृति का शाश्वत नियम है, जन्म लेने वाले का मरण निश्चित है । मरण के स्वरूप की जानकारी होने पर मरण के समय होने वाली आकुलता से बचा जा सकता है। मोह के कारण जीव जन्म मरण के नाम से ही भयभीत रहता है अत: ज्ञानी जीव ही मरण भय से रहित होता है ।
स्वपरिणामोपात्तस्यायुषइन्द्रियाणांलानां
च
कारणवशात् सक्षयो
मरणं । । "
अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष मिलने पर नाश होना मरण है दूसरे प्रकार से आयु कर्म का क्षय होना मरण कहलाता है
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आयुषः क्षयस्स मरणहेतुत्वात् । ।7
आयु कर्म के क्षय को मरण का कारण माना है। उपरोक्त मरण में नये शरीर को धारण करने के लिये पूर्वशरीर का नष्ट होना तद्भव मरण कहलाता है एवं प्रतिक्षण आयु का क्षीण होना नित्य मरण कहलाता है । संयम आदि की अपेक्षा मरण के भेदों को अन्य प्रकार से भी कहा गया है।
पंडिद पंडिद मरणं, पंडिदयं बाल पंडिद चेव । वाल मरणं चउत्थं पंच मयं बाल बालं च । । "