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________________ अनेकान्त 59/3-4 उपाध्याय आदि पर व्याधि परीषह आदि का, उपद्रव होने पर उन उपद्रवों का ‘प्रासुक औषधि, आहारपान, आश्रय, चौकी, फलक, घास की चटाई आदि धर्मोपकरण के द्वारा प्रतीकार करना तथा मिथ्यात्व की ओर जाते हुए को सम्यक्त्व मार्ग में दृढ़ करना वैय्यावृत्य तप हे (9/24/15)! जैन धर्म में स्वाध्याय को परम तप कहा है स्वाध्यायःपरमं तपः स्व+आधि+अय-स्वाध्याय अर्थात् निज का ज्ञान प्राप्त होना ही स्वाध्याय है। वाचना, पृच्छना (पूछना) अनुप्रेक्षा आम्नाय(पाठ) और धर्मोपदेश, ये स्वाध्याय के पॉच भेद हैं ।(9/25)! त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। बाह्य और आभ्यंतर उपधि का त्याग व्युत्सर्ग तप हैं (9/26)! ध्यान का स्वरूप चित्त को अन्य विकल्पों से हटाकार एक ही अर्थ में लगाने को ध्यान कहते है, यह ध्यान उत्तम संहनन वाले के अन्तर्मुहूर्त तक हो सकता है (9/27)। यह प्रथम तीन संहनन वालों को ही होता है। एकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानम' में एक शब्द संख्यापद है, अग्र मुख्य वा लक्ष्य यह एकार्थवाची है। चिंता अंतःकरण का व्यापार है। इस प्रकार ‘एक अग्रं' एक द्रव्य-परमाणु या भाव परमाणु या अन्य किसी अर्थ में चिन्ता को (चित्तवृति को) नियमित करना केन्द्रित करना, स्थिर करना, एकाग्रचिंता निरोध है। जो आत्मा के द्वारा ध्याया जाता है, वह ध्यान है। और ध्याति मात्र ध्यान है भाव साधन है। ___ अंगति जानाति जो जानता है वह 'अग्र' आत्मा है। इस दृष्टि से आत्मा में चिन्ता का निरोध करना ध्यान सर्वोत्कृष्ट तप है। शेष सब तप ध्यान की अवस्था में ही होता हैं ध्यान की अवस्था में सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है। शेष सब तप ध्यान की सिद्धि के लिये हैं। आचार्य अमितगति के अनुसार ध्यानं विनिर्मलं ज्ञानं पुसां संपद्यते स्थिरम (योगसार प्राभृत 9/12) अर्थात् जब निर्मलज्ञान स्थिर हो जाता
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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