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________________ अनेकान्त 59/3-4 आगम ज्ञान की प्राप्ति हेतु चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास (अनशन) कहलाता है ( तत्वार्थरा. 9/19/1)! संयम को जागृत करने के लिये, दोषों को शांत करने, सन्तोष, स्वाध्याय एवं सुख की सिद्धि के लिये अवमौदर्य होता है। तृप्ति के लिये पर्याप्त भोजन में से चतुर्थाश या दो चार ग्रास कम खाना अवमोदर है और उसका भाव अवमौदर्य कहलाता है (9/19/3)! एकघर, सातघर, एकगली, अर्द्धग्राम आदि के विषय में भोज्य पदार्थ आदि का नियम कर लेना वृत्ति परिसंख्यान तप है ताकि आशा तृष्णा की निवृति को (1/19/4)! जितेंद्रियत्व, तेजोवृद्धि एवं संयम में बाधा की निवृत्ति हेतु घी, दूध, दही, गुड़, नमक तेल आदि रसों का परित्याग करना रसपरित्याग तप कहलाता है (9/19/5) जन्तु बाधा का परिहार, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की सिद्धि हेतु निर्जन शून्यागार, गिरिगुफा आदि एकान्त स्थानों में सोना-बैठना विविक्त (एकान्त) शय्यासन तप कहलाता है (9/19/12)! और देह को कष्ट देने की इच्छा विषयसुख की अनासक्ति और जिनधर्म की प्रभावना हेतु अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रखना, आतापन, वृक्षमूल, सर्दी में नदी तट पर ध्यान करना आदि कायक्लेश तप है. (9/19/13)! ये तप दूसरों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय है। जिन्हें मुनिराज गृहस्थ एवं सम्यग्यदृष्टि मिथ्यादृष्टि सभी करते हैं, अतः बाह्य तप कहते हैं। आभ्यंतर (अंतरंग) तप __ प्रायः का अर्थ है साधुजन; चित्त, मन, जिसमें साधुजनों का चित्त लीन हो वह प्रायश्चित्त है। अतः मन की शुद्धि करने वाले कर्म को प्रयाश्चित्त कहते है। प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे दोषों की शुद्धि करना प्रायश्चित्त है (9/22/1)! ज्ञान लाभ, आचारशुद्धि और सम्यग् आराधना आदि की सिद्धि विनय तप से होती है। वह है- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय (9/26/1 एवं 8)। आचार्य,
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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