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अनेकान्त 59/3-4
अब्रह्मचर्य लोक में प्रमाद जनक और दुर्बल व्यक्तियों द्वारा आसेवित है। चारित्र-भंग के स्थान से बचने वाले मुनि उनका आसेवन नहीं करते। आगे और भी लिखा है
मूलमेय महम्भस्स, महादोससमस्सयं।
तम्हा मेहुणसंसग्गिं, निग्गथा बज्जयत्ति णं ।।अ. 6/16 यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल और महान दोषों की राशि है, इसलिए निर्ग्रन्थ मैथुन संसर्ग का वर्जन कहते है। पॉच पापों में एक अब्रह्म भी है। तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है- 'मैथुनमब्रह्म' अर्थात मैथुन अब्रह्म है। स्त्री और पुरुष का जोड़ा मिथुन कहलाता है और राग परिणाम से युक्त होकर इनके द्वारा की गई स्पर्शन आदि क्रिया मैथुन है। यह मैथुन ही अब्रह्म है। यद्यपि यहां मिथुन शब्द से स्त्री और पुरुष का युगल लिया गया है तथापि वे सभी सजातीय और विजातीय जोड़े जो कामसेवन के लिए एकत्र होते हैं मिथुन शब्द से अभिप्रेत हैं।
अब्रह्म के भेदों को निरूपित करते हुए ‘भगवती आराधना' में लिखा
इच्छिविसयाभिलासो वच्छिविमोक्खो य पणिदरससेवा। संसत्तदव्वसेवा तदिदियालोयणं चेव।। सक्कारो संकारी अदीदसुमरणागदभिलासे।
इष्ठविसय सेवा विय अव्वंम दसविहं एदं ।। 1. स्त्री सम्बन्धी जो इन्द्रिय विषय उनकी अभिलाषा करना अर्थात् उनका
सौन्दर्य, अधर रस, मुख का गंध, मनोहर गायन, मधुर हास्य, भाषण, शरीर का मृदु स्पर्श, उनका सहवास, सह गमन और सुन्दर
अङ्गावलोकन ये अब्रह्म हैं। 2. अपने इन्द्रिय लिङ्ग में विकार होना-स्थिर व दृढ़ होना वत्यि विमोक्ख
3. स्त्रियों की शय्यादि पदार्थों का सेवन करना, उनका उपभोग करना। जिस
प्रकार स्त्री का संभोग कामियों को प्रीतिकर होता है उसी प्रकार उनकी