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________________ अनेकान्त 59/3-4 09 शय्यादि भी उन्हें हर्षोत्पादक होती है। यह संसक्त द्रव्य सेवा है। 4. स्त्रियों के सुन्दर अंगों का अवलोकन तदिन्द्रियावलोकन है। 5. शरीर में बल-वीर्य वर्द्धक, पुष्टिकारक, गरिष्ठ आहार और रसों का सेवन करना वृष्य रस सेवा है। 6. स्त्रियों का सत्कार करना, उनके शरीर पर प्रेमासक्त हो उन्हें पुष्पहार, वस्त्रादि देकर प्रसन्न करना, उनका सम्मान करना, अलङ्कारादि प्रदान करना। 7. अतीत काल में भुक्त स्त्री सम्भोग रतिक्रीडा का स्मरण करना। 8. भविष्य में उनके साथ ऐसी-ऐसी क्रीडायें करूँगा इस प्रकार की अभिलाषा रखना 9. इष्ट विषय सेवा अर्थात् मनोभिलाषा सौध, उद्यान आदि का उपयोग करना। 10. जिसके रागभाव प्रबल है, ऐसे पुरुषों की संगति करना, उनके द्रव्यों का सेवन करना। उपर्युक्त 10 अब्रह्म के भेद हैं। इसके विपरीत ज्ञान, श्रद्धान और वीतरागता वर्द्धक गुणों में प्रवृत्ति करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य किसी प्रकार का बाहरी दबाव का बन्धन नहीं, अपितु मन का संयम है। इस संयम को महत्त्व देते हुए जैन परम्परा में असीम कामनाओं को सीमित करने हेतु विवाह को स्वीकार किया है। विवाह संयम की ओर अग्रसर होने का महत्त्वपूर्ण चरण है और पाशविक जीवन से निकल कर नीतिपूर्ण मर्यादित मानव जीवन को अंगीकार करने का साधन है किन्तु इसमें वेश्यागमन एवं परदार सेवन के लिए कोई स्थान नहीं है बल्कि मैथुन सेवन को अधर्म का मूल और बड़े बड़े दोषों को बढाने वाला कहा है। अणुव्रतों के अन्तर्गत ब्रह्मचर्याणुव्रत के सम्बन्ध में आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत। सा परदारनिवृतिः स्ववदारसन्तोषनामापि।।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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