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अनेकान्त 59 / 3-4
रत्नकरण्ड श्रावकाचार 3/13
अर्थात् जो पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति स्वयं गमन करता है और न दूसरों को गमन कराता है वह परस्त्रीत्याग अथवा स्वदारसन्तोष अणुव्रत है।
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आचार्य अमृतचन्द्र ने भी लिखा है
ये निजकलत्रपात्र परिहर्तु शक्नुवन्ति न हि मोहात् । निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम् ।
पुरुषार्थ सिध्युपाय ||
अर्थात् जो जीव मोह के कारण अपनी विवाहिता स्त्रीमात्र को छोड़ने को निश्चय में समर्थ नहीं है उन्हें अवशेष स्त्रियों का सेवन तो अवश्य ही नहीं करना चाहिए ।
धर्मामृत (सागार) में वर्णन है
सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ ।
न गच्छत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति भिया । ।
जो गृहस्थ पाप के भय से परस्त्री और वेश्या को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदन से न तो स्वयं सेवन करता है और न दूसरे पुरुषों से सेवन कराता है वह स्वदारसन्तोषी है ।
आत्मा के विकास में विषय-भोग प्रबल रूप से बाधक है। आचार्य गुणभद्र स्वामी कहते है
शरीरमपि पुष्णन्ति सेवन्ते विषयानपि ।
नास्त्यहो दुष्करं नृणां विषाद्वाञ्छति जीवितम् । ।
आत्मानुशासन 169
मनुष्य सदा ही शरीर को पोषते हैं तथा विषय भोगों को भोगते रहते हैं। इससे बढ़कर और खोटा कृत्य क्या होगा वे विष पीकर जीवन चाहते हैं ।