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अनेकान्त 59 / 3-4
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एवं सत्यबला स्वमातृभगिनी पुत्रीसमाः प्रेक्षते । वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् । ।12/2
ब्रह्म शब्द का अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनि का मन अपने शरीर के भी सम्बन्ध में निर्ममत्व हो चुका है उसी के वह होता है। ऐसा होने पर यदि इन्द्रियविजयी होकर वृद्धा, युवती, बाला आदि स्त्रियों को क्रमशः अपनी माता, बहिन और पुत्री के समान समझता है वह ब्रह्मचारी होता है ।
व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा ब्रह्मचर्य के दो भेद है । इनमे मैथुन क्रिया के त्याग को व्यवहार ब्रह्मचर्य कहा जाता है वह भी अणुव्रत और महाव्रत के भेद से दो प्रकार का है। अपनी पत्नी को छोड़कर शेष सब स्त्रियों को यथायोग्य माता, बहिन और पुत्री के समान मानकर उनमें रागपूर्ण व्यवहार न करना, इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष भी कहा जाता है तथा शेष स्त्रियों के समान अपनी पत्नी के विषय में भी अनुरागबुद्धि न रखना, यह ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है, जो मुनि के होता है। अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप में ही रमण करने का नाम निश्चय ब्रह्मचर्य है । यह उन महामुनियों के होता है जो अन्य बाह्य पदार्थों के विषय में तो क्या, किन्तु अपने शरीर के भी विषय में निस्पृह हो चुके है ।
आचारांग में लिखा है एतेसु चैव बभचेरं ति बेमि ।। 5/35 अर्थात् परिग्रह का संयम करने वालों में ही ब्रह्मचर्य होता है, ऐसा मैं कहता हूँ । ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं- आत्मरमण, उपस्थसंयम - मैथुनविरति तथा गुरुकुलवास । पदार्थों के प्रति आसक्त व्यक्ति आत्म रमण नहीं कर सकता । जिस व्यक्ति का पदार्थ के प्रति आकर्षण होता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन कर नहीं होता है। जो व्यक्ति पदार्थ के प्रति असंयत होता है, उसका गुरुकुल में रहना सुशक्य नहीं होता। इसका तात्पर्य है कि अपरिग्रही पुरुष ही ब्रह्मचर्य की साधना में समर्थ होता है ।
दशवैकालिक में कहा है
अभयरियं धोरं, पमायं दुरहि ट्ठियं ।
नायरति मुणी लोए, भेयाययणवज्जिणो ।। अ. 6/15