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________________ 'राजस्थान के कलात्मक जैन मंदिर' ___-डॉ. कमला गर्ग जैन धर्म का उद्देश्य है मनुष्य की परिपूर्णता अर्थात् संसारी आत्मा की स्वयं परमात्मत्व में परिणति। व्यक्ति में जो अन्तर्निहित दिव्यत्व है उसे स्वात्मानुभूति द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए यह धर्म प्रेरणा देता है और सहायक होता है। संभवतया यही कारण है कि जैनों ने सदैव ललितकलाओं के विभिन्न रूपो को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया। देश के सांस्कृतिक भण्डार को उन्होंने कला और स्थापत्य की अगणित विविध कृतियों से सम्पन्न किया, जिनमें से अनेकों की भव्यता और कला-गरिमा इतनी उत्कृष्ट बन पड़ी है कि उनकी उपमा नहीं मिलती। स्थापत्य शब्द से तात्पर्य मूर्तियों अथवा भवनों के निर्माण की किसी एक विशेष शैली से है, यह सीमित अर्थ है। स्थापत्य के अर्थ में व्यवहत होने वाले अन्य शब्द “वास्त कला" और "शिल्प कला" हैं। इसमें वास्तु कला अधिक व्यावहारिक एवं तर्कसम्मत है। यह शब्द औरों से अधिक प्रचलित तो है ही, साथ ही, अर्थ क्षमता कि दृष्टि से भी व्यापकत्व लिए हुए है। “शिल्प कला" प्रस्तर शिल्प अर्थात् मूर्ति निर्माण के कौशल तक ही सीमित रह गया है। अतः इसमें स्थापत्य या वास्तुकला जैसे शब्दों का स्थान लेने की क्षमता नहीं है। मंदिर स्थापत्य प्राचीन काल से ही मूर्ति पूजा के आरम्भ और विकास के चरणों के साथ ही विकसित हुआ है। इसकी प्रगति विभिन्न कालों में पूजा-विधानों में होने वाले परिवर्तनों के साथ होती रही। मंदिर-स्थापत्य कला का विकास प्रत्यक्षतः मूर्ति-पूजा के परिणामस्वरूप हुआ, जो जैनों में कम से कम इतिहास-काल के आरंभ से प्रचलित रही है। अपने मंदिरों के निर्माण में जैनों ने विभिन्न क्षेत्रों और कालों की प्रचलित शैलियों को तो अपनाया, किन्तु उन्होंने अपनी स्वयं की संस्कृति
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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