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अनेकान्त 59/3-4
मारु-गुर्जर शैली की मेदपाट (मेवाड़) शाखा का एक उत्कृष्ट उदाहरण मानते है और उन्होंने जगत के अंबिका मंदिर से शैलीगत समानताओं के आधार पर इसका निर्माणकाल मध्य दसवीं शताब्दी ठीक ही निर्धारित किया है। इस कालावधि का पुष्टीकरण इस स्थान पर पाये गये एक पादपीठ से होता है, जिस पर 954ई. का एक लेख भी उत्कीर्ण है, किन्तु अब वह पादपीठ अप्राप्य है।
जयपुर में सांगानेर स्थित सिंघी जी का मंदिर कलात्मकता का उदाहरण है। इस भवन के महत्वपूर्ण अंग सुरक्षित हैं। इस मंदिर की प्रमुख विशेषताओं में दो बड़े कक्ष शिखर-युक्त गर्भगृह सुसज्जित द्वार और मूर्त्यकन-युक्त अंत भाग जिसमें देवताओं की आकृतियाँ तथा अलंकरणों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। __देलवाड़ा के आबू मंदिर तो विश्वविश्रुत हैं। इन मंदिरों की स्थापत्य कला ने संसार की शिल्पशास्त्रीय परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया है, वह है- दण्डनायक विमल द्वारा 1032ई. में आबू पर बनवाया गया आदिनाथ का संगमरमरका प्रसिद्ध मंदिर, जो विमल वसहि के नाम से प्रसिद्ध है। इसके गर्भगृह, गूढ-मण्डप और त्रिक-मण्डप ही मूल भाग हैं। उसके शेष भाग 12वीं शता. में जोड़े गए हैं। यह मंदिर एक निरन्धर प्रासाद है। मूल प्रासाद, गूढमण्डप मुखमण्डप रंगमण्डप से सुसज्जित है। यह वावन देवकुलिकाओं से घिरा हुआ है। इसके बाहर बलानक के सामने हस्तिशाला है। हस्तिशाला विमल वसहि मंदिर के मुख्य द्वार के सामने बनी हुई है। इस हस्तिशाला के अन्दर तीन पंक्तियों में संगमरमर के सुन्दर कारीगरी युक्त झूल, पालकी और अनेक प्रकार के आभूषणों की नक्काशी से सुशोभित 10 हाथी हैं। इन सब पर एक-एक सेठ तथा महावत बैठते थे। प्रत्येक हाथी के होदे के पीछे छत्रधर अथवा चामरधर की दो-दो खड़ी मूर्तियाँ थीं किन्तु वे सब खंडित हो गई हैं। विमल वसहि के मुख्य द्वार और हस्तिशाला के बीच में एक बड़ा सभा मण्डप है। उसका निर्माण काल और निर्माण के विषय में कुछ भी सामग्री उपलब्ध नहीं है। इस सभा मण्डप के एक स्तंभ के पीछे पत्थर के एक छोटे स्तंभ