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अनेकान्त 59 / 3-4
परिग्रह
'वृहत् हिन्दी कोश' के अनुसार 'परिग्रह शब्द का अर्थ लेना, ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, आवेष्टित करना, धारण करना, धन आदि का संचय, किसी दी हुई वस्तु को ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, पत्नी, स्त्री, पति, घर परिवार, अनुचर, सेना का पिछला भाग, राहु द्वारा सूर्य या चन्द्रमा का ग्रसा जाना, शपथ, कसम, आधार, जायदाद, स्वीकृति, मंजूरी, दावा, स्वागत-सत्कार, आतिथ्य सत्कार करने वाला, आदर, सहायता, दमन, दंड, राज्य, सम्बन्ध, योग, संकलन, शाप बताया गया है । इसमें एक ओर जहाँ परिग्रह को संचय के अर्थ में लिया है वहीं शाप के अर्थ में भी रखा है जिससे परिग्रह की शोचनीय दशा प्रकट होती है। जैनचार्यों की धारणा में परिग्रह 'परितो गृह्णाति आत्मानमिति परिग्रहः' अर्थात् जो सब ओर से जकड़े; वह परिग्रह है। आचार्य उमास्वामी के अनुसार 'भूर्च्छा परिग्रह है' - "मूर्च्छा परिग्रहः ।"" इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है कि "गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन, अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप आभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्छा है।' आचार्य पूज्यपाद की ही दृष्टि में “ममेदंबुद्धिलक्षणः परिग्रहः” अर्थात् यह वस्तु मेरी है; इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। राजवार्तिक के अनुसारलोभकषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं ।" "ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मीयाभिमानः संकल्पः परिग्रह इत्युच्यते" अर्थात् यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है।
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धवला के अनुसार- परिगृह्यत इति परिग्रह बाह्यार्थः क्षेत्रादिः, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रहः बाह्यार्थ ग्रहणहेतुरत्र परिणामः । परिगृह्यते इति परिग्रहः” अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है; इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है तथा “परिगृह्यते अनेनेति परिग्रहः " जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है वह