________________
अनेकान्त 59 / 3-4
. परिग्रह है; इस निरुक्ति के अनुसार बाह्य पदार्थ के ग्रहण में कारण भूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है । "
50
समयसार आत्मख्याति के अनुसार 'इच्छा परिग्रहः' अर्थात् इच्छा ही परिग्रह है। 19
परिग्रह के भेद
परिग्रह के दो भेद हैं - १) बाह्य, २) अन्तरंग । बाह्य परिग्रह में भूमि, मकान, स्वर्ण, रजत, धन-धान्य आदि अचेतन तथा नौकर-चाकर, पशु स्त्री आदि सचेतन पदार्थ शामिल किये जाते है । १२ तथा अन्तरङ्ग परिग्रह में क्रोध, मान, माया, लोभ और हास्य, रति, अरति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद और मिथ्यात्वादि भावनायें व्यक्ति के अन्तरंग परिग्रह है । १२
परिग्रह पाप है
जैनागम में पाँच पाप माने गये हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह भी पाप है । परिग्रह बनाम मूर्च्छा पाँचों प्रकार के पापों का मूल स्रोत है । जो परिग्रही है तथा परिग्रह के अर्जन, सम्बर्द्धन एवं संरक्षण के प्रति सचेत है वह हिंसा, झूठ, चोरी व अब्रह्म से बच नहीं सकता । 'सर्वार्थ सिद्धि' के अनुसार- 'सब दोष परिग्रह मूलक हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में प्रवृत्त होता है, नरकादि में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं । १४
आ. गुणभद्र की दृष्टि में - "सज्जनों की भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धन से नहीं बढ़ती। क्या कभी समुद्र को स्वच्छ जल से परिपूर्ण देखा जाता है?"