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________________ अनेकान्त 59 / 3-4 1 पैसे वाला है । मानव जाति की सेवा उसी से बन सकती है। "आज आवश्यकता है भगवान महावीर की एक प्रेरक आदर्श की; जो बता सके कि चारित्र का मार्ग ही वरेण्य है । मेरी यह पंक्तियां इन्हीं भावनाओं की उद्भावक हैं 48 हे वीर प्रभु इस धरा पर आज तुम फिर से पधारो । हे वीर प्रभु सब काज कर आज मम जीवन निहारो ॥ हो गया मानव जो दानव दनुजता उसकी मिटाओ । सरलता से, नेह-धन से सहजता उसकी बचाओ ॥ हे वीर तुम आनन्द की मूर्ति निर्वेर हो । गुणों के मीर हो शान्ति से अमीर हो || एक से नेक हो अनेकान्त से अनेक हो । शम, दम, दया, त्याग के स्वयं संन्देश हो । भगवान महावीर ने कहा कि आशा तृष्णा के ताप से तप्त मन हितकर नहीं । अर्थ अनर्थ न कर दे इसलिए अर्थ की अनर्थता का चिन्तन करो - "अर्थमनर्थ भावय नित्यं । ” गृहस्थ अर्थ का उपार्जन करे किन्तु वह न्याय की तुला पर खरा उतरना चाहिए। अन्याय, अनीति से कमाया गया धन विसंवाद कराता है, संघर्ष के लिए प्रेरित करता है अतः वह मल की तरह त्याज्य है । गृहस्थ के लिए धन साघन बने, साध्य नहीं और साधु के लिए धन सर्वथा त्याज्य है । यहाँ तक कि वह उसके प्रति ममत्व भी न रखे तभी समत्व की साधना पूरी होगी । इसीलिए भगवान की वाणी अमृत रूप बनी, भगवान का चारित्र सम्यक् चारित्र बना। उनके चारित्र से संसार जान सका कि जोड़ने में सुख नहीं; सुख तो त्यागने में है । हमारी तो भावना है कि हम भगवान महावीर के जीवनादर्शों को अपनायें ताकि शान्ति मिले, समता हो और संघर्षो से छुटकारा मिलें । वीतरागता का उनका आदर्श प्रयोग की कसौटी पर कसा हुआ खरा है जिसके प्राप्त होने पर न संसार बुरा है, न व्यक्ति । बल्कि स्वयं अपनी आत्मा प्रिय लगने लगती है और लक्ष्य बन जाता है आत्मा को जीतो, आत्मा को पाओ ।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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