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अनेकान्त 59/1-2 है उन्हीं अंशों में आत्मा की ज्ञान शक्ति भी प्रकट होने लगती है। सभी आत्मायें अपनी ज्ञान शक्ति को प्रकट करने के लिए समान पुरुषार्थ नहीं करतीं, इसीलिए संसारी आत्माओं के ज्ञान में भिन्नता दिखाई देती है।
कर्म बंधन के क्षीण होने को जैनागम में क्षयोपशम कहा जाता है। जब ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण क्षय (अभाव) हो जाता है तब आत्मा की अनंत ज्ञान शक्ति अर्थात् केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। एक बार कर्म के पूर्ण क्षय होने पर पुनः कभी इन कर्म बंधनों से आत्मा को सामना नहीं करना पड़ता। - मति एवं श्रतज्ञान के उपरान्त होने वाले अवधिज्ञान एवं मनःपर्यय ज्ञान में इन्द्रियों एवं मन का एकदेश उपयोग होने से इन्हें एकदेश प्रत्यक्ष माना गया है। आचार्य अकलंक देव ने अष्टशती की तृतीय कारिका में स्पष्ट लिखा है कि
"आत्मनमेवापैक्ष्यैतानि त्रीणि ज्ञानानि उत्पद्यन्ते।
न इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षा तत्रास्ति ।।" अवधिज्ञान, मनःपयर्यज्ञान व केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान आत्मा की अपेक्षा करके ही उत्पन्न होते हैं। वहां इन्द्रिय व अनिन्द्रिय की अपेक्षा नहीं होती।
सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अंत में प्रकट होने वाला केवलज्ञान ही सकल प्रत्यक्ष है क्योंकि इस ज्ञान में समस्त द्रव्यों की त्रिकालवर्ती (अतीत, अनागत, वर्तमान) पर्यायों का ज्ञान युगपत् (एक साथ) होता है। इस ज्ञान में मन एवं इन्द्रियों की सहायता के बिना ही सकल पदार्थों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यह ज्ञान असीमित है, अनंत है। इस ज्ञान के विषयगत पदार्थों की व्याख्या करते हुए आचार्य उमास्वामी ने लिखा
“सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" तत्वार्थ सूत्र 1/29 केवल ज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायें हैं। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- "द्रव्यपर्यायजातं