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अनेकान्त 59/1-2
119 (आंध्र प्रदेश) में स्थित ‘रामगिरि' (विशाखा पट्टन जिलान्तर्गत रामतीर्थ या रामकोंड) नामक पहाड़ियों के मध्य निवास करते थे। यहीं पर जिनालय में बैठकर उन्होंने अपने 'कल्याण कारक' ग्रंथ की रचना की थी। साथ ही अध्ययन से यह तथ्य भी उघाटित होता है हि उन्हें बेंगी के पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799 ई.) का संरक्षण प्राप्त था।
धनंजय
कोश ग्रंथ रचनाकार के रूप में ये प्रख्यात हैं। इनके समय के विषय में विद्वानों में यद्यपि किंचित् मतभेद है, तथापि आठवीं-नवमी शताब्दी के मध्य इनकी अवस्थिति पं. नाथूराम प्रेमी. डा. हीरालाल जी आदि विद्वानों ने निर्धारित की है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में 'धनंजय निघण्टु' आयुर्वेद की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें अनेक वानस्पतिक द्रव्यों का परिचय संग्रहित है। इनके द्वारा रचित विषापहार स्तोत्र में विष विज्ञान सम्बन्धी विषय का उल्लेख है जो आयुर्वेद से सम्बन्ध रखता है। इससे इनकी आयुर्वेदज्ञता लक्षित होती है।
सोमदेव सूरि (9वीं श.)
बहुश्रुत जैनाचार्य के रूप में श्री सोमदेव का नाम चर्चित है। इनका समय नवम शताब्दी का उत्तरार्ध सर्वमान्य है। यद्यपि इन्होंने आयुर्वेद के किसी स्वतन्त्र ग्रंथ की रचना नहीं की है, तथापि इनके द्वारा रचित यशस्तिलक चम्पू में विस्तारपूर्वक आयुर्वेद सम्बन्धी स्वस्थवृत्त, स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी नियमों, हिताहार, अहिताहार और उसके सेवन से उत्पन्न होने वाली हानियों-विकारों, भोजन विधि, दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या आदि का प्रतिपादन जिस प्रकार विस्तार पूर्वक किया गया है वह उनके आयुर्वेद के प्रति उनके योगदान को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।