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अनेकान्त 59/3-4
के पृष्ठ भाग में चौसठ हड्डियाँ होती हैं। समचतुरस्रसंस्थानधारी ये एक दिन के अन्तराल से ऑवले बराबर अमृतमय आहार लेते हैं। उत्पन्न हुए बालक को शय्या पर अंगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, गुणप्राप्ति, तारुण्यप्राप्ति एवं सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता में क्रमशः सात-सात दिन लग जाते हैं। शेष कथन उत्तम एवं मध्यम भोगभूमि की तरह ही है।'' भोगभूमि में मरण होने पर मनुष्य का शरीर कर्पूरवत् उड़ जाता हैं।
भोगभूमि में गुणस्थान आदि
भोगभूमिज जीवों में अपर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व एवं सासादन दो गुणस्थान, पर्याप्त अवस्था में मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र एवं अविरतसम्यग्दृष्टि- चार गुणस्थान होते हैं। उनके पर्याप्त अवस्था में दस प्राण - पॉच इन्द्रियाँ, मन वचन, काय, श्वासोच्छ्वास एवं आयु तथा पर्याप्त अवस्था में मन, वचन एवं श्वासोच्छ्वास को छोड़कर शेष सात प्राण होते हैं।
भोगभूमिज जीव आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं से; मनुष्य एवं तिर्यंच गति से; पंचोन्द्रिय जाति से त्रस काय से; ग्यारह योगों- 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र एवं कार्मण काययोग से पुरुषवेद एवं स्त्रीवेद से, सम्पूर्ण कषायों से; मति-श्रुत-अवधि-मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभंगावधि इन छः ज्ञानों से; सर्व असंयम से; चक्षु-अचक्षु एवं अवधि इन तीन दर्शनों से संयुक्त होते हैं। ये अपर्याप्तक अवस्था में दोनों गुणस्थानों में कृष्ण, नील एवं कापोत लेश्याओं से तथा पर्याप्त अवस्था में चारों गुणस्थानों में तीनों शुभ - पीत, पद्म एवं शुक्ल लेश्याओं से युक्त होते हैं। ये भव्यत्व एवं अभव्यत्व से; औपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिश्र, सासादन और मिथ्यात्व से संयुक्त होते हैं। ये संज्ञी; आहारक एवं अनाहारक तथा साकार एवं निराकार उपयोग वाले होते हैं। भोगभूमिज तिर्यच और मनुष्य