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________________ अनेकान्त 59/3-4 सल्लेखना पूर्वक मरण होना बड़े सौभाग्य की दात है। आचार्य कहते हैं गुरुमूले यतिनिचिते चैत्यसिद्धान्तवार्धि सद्घोषे। मम भवतु जन्म जन्मनि संन्यसनसमन्वितं मरणं ॥ अर्थात् जहाँ मुनि समुदाय विराजमान हो, जिन प्रतिमा के समीप अथवा सिद्धान्त समुद्र का गम्भीर घोष हो रहा हो उनके चरणमल में मेरा जन्म जन्म में संन्यास सहित समाधि मरण हो। क्षपक को सल्लेखना के समय परिणामों की विशुद्धता पर पूर्ण सावधानी रखना चाहिए। किसी प्रकार की लोकवासना कषाय परिणति तपोभंग विकार विचारणाएँ उस समय नहीं आना चाहिए। क्षेपक या समाधिगृहीता को ऐसा चिन्तन करना चाहिए कि मेरी मृत्यु नहीं हो सकती फिरभय कैसा? मुझे कोई रोग नहीं फिर पीड़ा कैसी? न मैं बालक हूँ न वृद्ध न युवा। यह सब पुद्गलकी पर्यायें हैं। इस प्रकार जन्म, मरण, सुख दुख लाभ-अलाभ संयोग वियोग सभी स्थितियों में समता धारण कर समाधि-मरण होना चाहिए।' हे ज्ञान आत्मन्! मृत्यु महोत्सव के उपरिस्थत होने पर तुम किस बात का भय करते हो? यह आत्मा अपने स्वरूप में स्थित रहता हुआ एक देह से दूसरे देह में जाता है इसमें भय क्या? वह विचार करता है कि कर्म रिपु ने आत्मा को देह पिंजरे में बंदी बना रखा है। जिस समय से गर्भ में आया, उसी क्षण से क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग, आदि दुखों ने घेर रखा है। इस बन्धनग्रस्त आत्मा को सिवा मृत्यु राजा के और कौन मुक्त कर सकता है?12 जिन जीवों का चित्त संसार में आसक्तिमान है वे अपने रूप को नहीं जानते अतः उन्हें मृत्यु भयप्रद होती है, किन्तु जो महान आत्माएं आत्मस्वरूप को जानती हैं और वैराग्यधर हैं उनके लिए समाधिमरण आनन्द प्रद है। तप का ताप भोगना व्रत का पालन करना और श्रुत का पठन करना इन सबका फल समाधिमरण प्राप्त करना है। अस्तु उत्साहपूर्वक इस समाधिमरण में प्रवृत्त होना चाहिए।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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