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________________ अनेकान्त 59/3-4 द्रव्य और भाव रूप होता है। उक्त में शरीर विवेक, उपधि विवेक और भक्तपान विवेक उभयनिष्ठ हैं। (1) शरीर विवेक- अपने शरीर में होने वाले उपद्रवों का दूर न करना शरीर विवेक है। शरीर पर उपद्रव करने वाले मनुष्य तिर्यच आदि को हाथ से नहीं रोकना । डांस, मच्छर, विच्छू, कुत्ते आदि को हाथ से या पिच्छी आदि उपकरण या दण्ड से दूर नहीं करता यह काय से शरीर विवेक है। मेरे शरीर को पीड़ा मत दो अथवा मेरी रक्षा करो ऐसा न बोलना अथवा चैतन्य से और सुख दुःख के सम्वेदन से रहित यह शरीर है ऐसा बोलना वचन से शरीर विवेक है। (2) उपकरणों का त्याग करना काय से उपधि विवेक है तथा उपकरणों का त्याग करता हूँ। ऐसा बोलना वचन से उपधि विवेक है। (3) भोजन एवं रस जल आदि को न खाना न पीना काय से भक्तपान विवेक है तथा इस प्रकार क भोजन या पान को में ग्रहण नहीं करता हूँ ऐसा कहना वचन भक्तपान विवेक है। (4) जिसमें पहिले रहे हैं, उस वसति में न रहना काय से वसति विवेक है। इसी प्रकार पूर्व के संस्तर पर न सोना न बैठना काय से संस्तर विवेक है। मैं वसति या संस्तर को त्यागता हूँ यह कहना वचन वसति या वचन संस्तर विवेक है। (5) वैयावृत्य करने वाले शिष्यों आदि के साथ वास न करना काय से वैयावृत्य करने वालों का विवेक है तथा वचन से ऐसा बोलना कि वैय्यावृत्य मत करो मैंने तुम्हारा त्याग किया वचन से विवेक है। सर्वत्र शरीर में वसति या संस्तर में, भक्तपान आदि में अनुराग भाव से 'यह मेरा है' इस प्रकार का भाव मन में न करना भाव विवेक है। उक्त पाँच प्रकार की शुद्धियों का पालन करने तथा पाँच प्रकार के विवेक को मन वचन एंव काय से संरक्षित करने वाले क्षपक का समाधिमरण समता, निस्पृह और शान्त भावों से सम्पन्न होता है।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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