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अनेकान्त 59/1-2 विशेषता है। सकल्प के भेद से धीवर नही मारते हुए भी पापी है और किसान मारते भी पापी नहीं है। अन्यन्त्र एक उदाहरण देते हुए श्री सोमदेवसूरि का कथन है
_ 'क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयंभूरमणोदधौ।
महामत्स्यस्य कर्णस्यः स्मृतिदोषादधोगतः ।।15 स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कान में रहने वाला एक शुद्र मत्स्य (तदुलमत्स्य सकल्प दोप (बुरे संकल्प) के कारण नरक गति को प्राप्त हुआ। यद्यपि उसने किसी का घात नहीं किया था, किन्तु वह हमेशा सकल्पी हिसा को ही करता रहता था। आचार्य अमृतचन्द्र का कथन इस सन्दर्भ मे ध्यातव्य है कि कोई जीव हिंसा को नहीं करके भी हिसा के फल का भागी होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिसा के फल का भागी नही होता है। यह सव परिणामों की ही महिमा है।''
जीवदया की श्रेष्ठता आचार्य कार्तिकेय ने 'जीवाणं रक्खणं धम्मो'17 कहकर धर्म की अन्य परिभाषाओं के साथ जीवदया को भी धर्म कहा है। श्री सोमदेवसूरि जीवदया की श्रेष्ठता का कथन करते हुए लिखते है
'एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः। परं फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणिरिव।। आयुष्मान्सुभगः श्रीमान्सुरूपः कीर्तिमान्नरः। अहिसाव्रतमहात्म्याकस्मादेव जायते ।। पञ्चकृत्व. किलैकस्य मत्स्यस्याहिंसनात्पुरा।
अभूत्पञ्चापदोऽतीत्य धनकीर्तिः पतिः श्रियः।।18 अर्थात् अकेली जीवदया एक ओर है और बाकी की सब क्रियायें दूसरी ओर है । अन्य सव क्रियाओं का फल खेती की तरह है, जबकि जीवदया का फल चिन्तामणि की तरह है। अकेले एक अहिसा व्रत की महत्ता से ही मनुष्य आयुप्मान, सौभाग्यशाली. ऐश्वर्यवान, सुन्दर और यशस्वी होता है पूजम मे पांच बार एक मछली को न मारने से धनकीर्ति पांच बार आपनियों से बचकर लक्ष्मी का स्वामी बना। उन्होंने