________________
अनेकान्त 59/3-4
117
घात होने में मन, वचन, काम की दुर्भावना, संज्ञाओं का प्रादुर्भाव, दसधर्म का घात, एकेन्द्रिय आदि जीवों की विराधना और पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृति होती है। अतः इन दोनों प्रकार के शीलों के भेदों का परस्पर सम्बन्ध है।
अथवा शील का अर्थ स्वभाव, उस उस स्वभाव की घातक मन, वचन कायिक क्रिया का नाम है कुशील, उन क्रियाओं के त्याग को कहते हैं शील। मुख्यतया अभेदरूप से स्वभाव में रमण करना ही शील है। उसको विशेष रूप से समझाने के लिए 18000 भेद किये हैं।
18000 शीलों का अहिंसात्मक परिणाम की अपेक्षा भेद इस प्रकार हैं
अशुभ मन, वचन, काय योग को शुभ मन, वचन और काय से नष्ट करने से शील के नौ भेद हैं। इन नौ भेदों को आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा इन चार से गुणा करने पर शील के 36 भेद होते है क्योंकि संज्ञा भी आत्मस्वभाव की घातक है। इन 36 प्रकार के शील के भेदों को स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रिय विजय के द्वारा गुणा करने पर 180 शील के भेद होते है अर्थात् भावेन्द्रिय आत्मा का उपयोग(ज्ञान) है वह उपयोग अपने जानने देखने स्वभाव को छोड़कर बाह्य पदार्थों में लीन हो गया है, इन्द्रिय द्वार से चार संज्ञाओं में जा रहा है, उसको रोककर अपने स्वभाव में लाने की चेष्टा करना शील कहलाता है। - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, दो इन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सैनी, असैनी पंचेन्द्रिय इन दस प्रकार के जीवों पर अनुकम्पा करना, यह शील है। इसलिए 180 भेदों को दस प्रकार के जीवों के दया भाव से गुणा करने पर शील के 18000 भेद होते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य, असंयम, अतप, अत्याग, परिग्रह में प्रवृत्ति और अब्रह्म ये आत्मस्वभाव के घातक हैं। अतः उत्तम क्षमादि दसधर्म के लक्षण के द्वारा क्रोधित विभाव भावों का विनाश कर अपने स्वरूप को उपयोग में स्थिर करना शील है। मुनि इन 18000 शीलों का स्मरण चिंतन, मनन करके अपने स्वभाव में स्थिर होने का प्रयत्न करे।
ब्रह्मचर्य की मुख्यता से शील के भेद- सत्रह हजार दो सो