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________________ कर्मक्षय में ध्यान तप का महत्व और स्वरूप डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल - जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा स्वतंत्र और स्वाधीन है । कोई किसी का कर्त्ता - भोक्ता - हर्त्ता नहीं है। सभी अपने अपने भावों के अनुसार पुण्य-पाप का अर्जन कर उनके उदय अनुसार सुख-दुख भोगते हैं । इस प्रकार जीव का जीवन-मरण सुख-दुख हानि-लाभ आदि कर्मोदय जन्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जैन दर्शन में कर्म का तात्पर्य पुद्गल द्रव्य की अशुभ-शुभ रूप उन सूक्ष्म कार्मण वर्गणाओं से हैं जो जीव विशेष के अशुभ-शुभ भावों (परिणामों) के निमित्त से आत्म प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बंध स्थापित करते हैं और स्थिति पूर्ण होने पर उदय में आकर दुख-सुख की सामग्री एवं मनोविकारों में उत्पत्ति हेतु निमित्त बनते हैं। यह ध्यातव्य है कि आत्मा और कर्म के मध्य कर्ता-कर्म सम्बन्ध न हो कर मात्र निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होता है । इन मनोविकार रूप क्रोधादि भावों को भाव कर्म कहते हैं । भाव कर्म से आत्मा का ज्ञाता - दृष्टा स्वरूप शांत स्वभाव बाधित होता है । कर्मों को द्रव्य कर्म कहते हैं। आनदि काल से द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म बंध का अज्ञान रूप क्रम चालू है जो दुखमय और दुख स्वरूप है। इससे निवृत्ति का उपाय है आत्मदर्शन, आत्मज्ञान और स्वरूप में रमणता । इसे ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप एकता को मोक्ष मार्ग कहा है। यह आत्म-विज्ञान का विषय है जीवन में धर्म का प्रारम्भ कर्मों के संवर से होता है । संवर अर्थात् कर्मो के आगमन का रुकना और फिर कर्मो की निर्जरा होना । सम्पूर्ण कर्म क्षय से मोक्ष होता है। इस अवस्था में आत्मा अपने द्रव्य गुण स्वरूप को पर्याय में व्यक्त कर परम सुखी और अनंत ज्ञान दर्शन - सुख और वीर्य का धारी होता है। इसे ही शुद्धात्मा की पूर्ण व्यक्तता कहते
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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