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अनेकान्त 59/3-4
हैं। शुद्धात्मा की प्राप्ति संयोग और संयोगी भावों से आत्म स्वरूप के ज्ञायक भाव के भेदविज्ञान से होती है। इस प्रकार शुद्धात्मा के ज्ञान एक अनुभव से कर्मों का संवर होता है। इसके पश्चात् शुद्धोपयोग रूप शुद्धात्मा में स्थिरता एवं इच्छा निरोध से कर्मों की निर्जरारूप कर्म क्षय होता है। यह तप से ही होता है।
कर्मों का आनव-संवर
तत्वार्थसूत्रकार आचार्य अमास्वामी ने कर्मो के आसव- बंध आदि की स्थिति को निरूपित करते हुए कहा है कि 'कायवाड्मनःकर्म योगः' (तत्वा. 6/1)1 काय, वचन और मन के परिस्पन्द को योग कहते हैं। 'स आस्रवः' (6/2) वह योग ही आसव है। 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य (6/3) शुभ योग पुण्य और अशुभ योग पापानव का कारण है। योग से आत्म-प्रदेशों का स्पंदन होता है, जिससे शुभ-अशुभ कर्मपरमाणु आत्म प्रदेश में प्रवेश करते है। शुभ योग से पुण्य और अशुभ योग से पाप का बंध होता है। योग से प्रकृति और प्रदेश रूप कर्म का बंध होता है। कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है- ऋजूसूत्र नय की दृष्टि से। योग संसार अवस्था में होता है। अयोग केवली और सिद्ध भगवान योग रहित हैं। इस प्रकार जैन-दर्शन में योग शब्द का प्रयोग मन-वचन काय की क्रिया रूप में किया जाता है जबकि अन्य दर्शनों में समाष्टि T-ध्यान के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाता है।
सूत्रकार के अनुसार 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्ध हेतवः'- मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के कारण हैं। (8/1) जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, यही बन्ध है (8/2)। यह बंध प्रकृति, स्थिति, अनुभव (अनुभाग) और प्रदेश के. भेद से बंध चार प्रकार का है (8/3) ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, ये मूल प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं(8/4)। .