SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 59/3-4 पंचविहं जे सुद्धिं पत्ता णिखिलेण णिच्छिद मदीया। पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुमति ॥ आलोयणाए सेज्जासंथा रूवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होई ॥म.आ. 167-168॥ पाँच प्रकार की शुद्धियाँ इस प्रकार है- (1) आलोचना शुद्धि (2) शय्या शुद्धि (3) संस्तर और परिग्रह की शुद्धि (4) भक्तपान की शुद्धि तथा (5) वैयावृत्य करने वाले की शद्धि। माया और मृषा से रहित होना आलोचना शुद्धि है। मन में कुटिलता या कपट भाव होना माया है तथा असत्य भाषणको मृषा कहते है। माया कषाय है जोकि आभ्यन्तर परिग्रह है। मृषा भी आभ्यन्तर परिग्रह की श्रेणी में आता है क्योंकि असत्य भाषण के द्वारा कर्म का ग्रहण होता है, अतः यह उपधि हैं। __ उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों से रहित होना तथा 'यह मेरा है' ऐसा ममत्व भाव परिग्रह का भाव है। मूर्छा परिग्रहः ॥ तत्वार्थसूत्र॥ यह मूर्छाभाव नहीं होता वसति और संस्तर रूप परिग्रह की शुद्धि है। संस्तर और वसति का त्याग कर देने से वह उपधित्याग होता है। शिवार्य परिग्रह त्याग का क्रम बतलाते हैं कि सव्वत्य दव्व पज्जय ममत्तसंग विजडो पणिहिदप्पा। णिप्प णय पेम रागो उवेज्ज सव्वत्य समभावं ॥ भ.आ. 172 ॥ अर्थात् सर्व देश में प्रतिबद्ध आत्मा द्रव्य और पर्यायों से ममता रूपी परिग्रह से रहित होकर प्रणय, प्रेम और राग के नाना विकल्पों को त्याग कर समभाव को धारण करे। जो व्यक्ति वस्तु स्वरूप को जानने में अपने उपयोग को लगा लेता है तथा जो पुद्गल की वैभाविक पर्यायों में ममता नहीं करता तथा पुत्र, स्री, मित्रादि में भोग के साधनों में उनकी रूप रस गन्ध और स्पर्श पर्यायों मे प्रणय अर्थात प्रेम व राग के आसक्ति रूप परिणामों से रहित होता है, वही समभाव को प्राप्त हो सकता है। शय्या रहित होना शय्या शुद्धि है।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy