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अनेकान्त 59 / 3-4
बाह्य छह प्रकार के तप द्वारा वह भक्तपान की शुद्धि करता है ।
वैय्यावृति करने वाले को संयमी एवं वैयावृत्य के क्रम का ज्ञाता होना चाहिए । यही वैयावृत्य करने वाले की शुद्धि है । क्षपक संयमी व्यक्ति से ही वैयावृत्ति करवाता है अन्यथा उसको स्वीकार नहीं करता है ।
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अन्य पकार से पाँच प्रकार की शुद्धियाँ भगवती आराधना में इस प्रकार कही गयी हैं:
अहवा दंसण णाण चरित्त सुद्धी य विणय सुद्धी य । आवास य सुद्धी विय पंच वियप्पा हवदि सुद्धी ॥ 169 |
(1) दर्शन शुद्धि (2) ज्ञान शुद्धि (3) चरित्र शुद्धि (1) विनय शुद्धि (5) आवश्यक शुद्धि |
(1) सम्यग्दर्शन के आठ अंगों (गुणों) को धारण करना दर्शन शुद्धि है । आठ गुण इस प्रकार है- निःशंकित गुण, निःकांक्षित गुण, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, और प्रभावना । इन गुणों के धारण करने से अशुभ परिणाम रूप परिग्रहों का त्याग हो जाता है क्योंकि इनके विपरीत आठ दोष बताये हैं जो सम्यग्दर्शन को मलिन बना देते हैं ॥ अस्तु, दर्शन-शुद्धिअष्ट अंगों के सहित सम्यग्दर्शन को प्राप्त होना है। दर्शन शुद्धि के लिए सम्यक्त्व के पच्चीस गुण बताये गये हैं जिनसे युक्त होना चाहिए। तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन और शंकादि आठ दोषों इस प्रकार कुल पच्चीस दोषों को टालने से सम्यक्त्व के 25 गुण प्राप्त होते हैं जिनसे दर्शन में शुद्धि आती है ।
(i) यथायोग्य समय में पढ़ना- ज्ञान शुद्धि है। उसके होने पर अकाल पठन आदि क्रिया जो ज्ञानावरण के बन्ध का कारण है, उसका त्याग हो जाता है ।