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अनेकान्त 59/3-4
(iii) पच्चीस भावनाएँ होना चारित्र शुद्धि है। उसके होने पर मन की चंचलता को न रोकना आदि अशुभ परिणाम आभ्यन्तर परिग्रह है, उनका त्याग हो जाता है।
(iv) इष्ट फल की अपेक्षा न करके विनय करना विनय शुद्धि है। यह विनय भी चार प्रकार की कही गयी है- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय। ___ (v) सावध योग का त्याग, जिनदेव को गुणों में अनुराग, नमस्कार करने योग्य श्रुत का पालन किये हुए अपराध की निन्दा मन से प्रत्याख्यान करना, शरीर असारता और उसके अनुपकारीपने का चिन्तन करना आदि आवश्यक शुद्धि है। उसके होने से अशुभ योग शरीर से ममता, अपराध के प्रति ग्लानि न होना आदि आभ्यन्तर परिग्रह का निरसन हो जाता है।
पाँच प्रकार के विवेक का विवेचन
इंदिय कसाय उवधीण, भत्तपाणस्स चावि देहस्स। एस विवेगो भणिदो, पंचविधो दव्वभावगदो॥ भ.आ. 170 ॥
(1) इन्द्रिय विवेक (2) कषाय विवेक (3) उपथि विवेक (4) भक्तपान विवेक और (5) देह विवेक। ये पाँचों द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार से वर्गीकृत किये जा सकते है।
(1) पंच इन्द्रिय के विषयों में राग पूर्वक प्रवृत्त न होना न ही इस प्रकार के वचनों का उच्चारण करना कि मैं अमुक रूप देखता हूँ मैं यह राग सुनता हूँ मैं घने बालों को देखता हूँ या ओष्ठ का रसपान करता हूँ अमुक सुगंधित पुष्प को सूंघता हूँ । यह सब द्रव्य इन्द्रिय विवेक है। रूपादि का ज्ञान होना। उस ज्ञान को भावेन्द्रिय कहते है। उस ज्ञान के होने पर भी रागद्वेष न करना और मानस ज्ञान का परिणत न होना भाव इन्द्रिय विवेक है।