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अनेकान्त 59/3-4
से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तुयें देखना, जिह्वा से विकारोत्तेजक पदार्थो का आस्वादन करना और घ्राण से विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थो को सूंघना ब्रह्मचर्य के लिए तो बाधक है ही पर समाज हित की दृष्टि से भी हानिकर है। मिथ्या आहार विहार से समाज में विकृति उत्पन्न होती है, जिससे समाज अव्यवस्थित हो जाता है। सामाजिक अशान्ति का एक बहुत बड़ा कारण इन्द्रिय सम्बन्धी अनुचित आवश्यकताओं की वृद्धि है। अभक्ष्य भक्षण भी इन्द्रिय की चपलता के कारण व्यक्ति करता है।
वस्तुतः सामाजिक दृष्टि से ब्रह्मचर्य भावना का रहस्य अधिकार और कर्तव्य के प्रति आदर भावना जागृत करना है। नैतिकता और बल प्रयोग ये दोनों विरोधी हैं। ब्रह्मचर्य की भावना स्वनिरीक्षण पर जोर देती है, जिसके द्वारा नैतिक जीवन का आरम्भ होता है। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में संगठन शक्ति की जागति भी इसी के द्वारा होती है। संयम के अभाव में समाज की व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं की जा सकती। यतः सामाजिक जीवन का आधार नैतिकता है। प्रायः देखा जाता है कि संसार में छीना झपटी की दो ही वस्तुयें है। 1 कामिनी और 2 कञ्चन। जब तक इन दोनों के प्रति आन्तरिक संयम की भावना उत्पन्न नहीं होगी, तब तक समाज में शान्ति स्थापित नहीं होगी। अभिप्राय यह है कि जीवन निर्वाह शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के हेतु अपने उचित हिस्से से अधिक ऐन्द्रियक सामग्री का उपयोग न करना सामाजिक ब्रह्मभावना हैं। __महान् दार्शनिक पाइथागोरस ब्रह्मचर्य की महिमा बताते हुए लिखते
____ “जो व्यक्ति अपने आप पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह स्वतंत्र (स्वाधीन) नहीं हो सकता। अपने आप पर शासन और अनुशासन की शक्ति-सामर्थ्य 'ब्रह्मचर्य' के बिना संभव नहीं है।
रीडर-जैन दर्शन संस्कृत विद्या एवं धर्मविज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय