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________________ अनेकान्त 59/1-2 कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम्। संयमः संयतैः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम्।। (1/231/892) चारित्रसार में पञ्चाणुव्रत का पालन करना ही संयम कहा है'संयमः पञ्चाणुव्रतप्रवर्त्तनम्' (1/259)। संयम के ही एक प्रसंग में चारित्रसार में एक शंका समाधान किया गया है जो संभवतः षट्खण्डागम के वर्गणा खण्ड के बन्धन अधिकार से उद्धृत है। शंका है कि संयम और विरति में क्या भेद है? उसका उत्तर देते कहते हैं कि समिति सहित महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियों के बिना वे महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं। (1/257) धर्मसंग्रह श्रावकचार में कहा है कि मन और इन्द्रियों के वश करने को संयम कहते हैं। इसलिए गृहस्थों को अपने योग्य संयम निरन्तर पालन करना चाहिए। यह संयम भी सकल संयम एवं विकल संयम के भेद से दो प्रकार का होता हैं सकल संयम मुनि धारण कर पाते हैं। एवं विकल संयम गृहस्थ धारण कर पाता है- (2/17/216–217) मनः करणसंरोधस्त्रसस्थावरपालनम्। संयमः सद्गृही तं च स्वयोग्यं पालयेत्सदा।। संयमो द्विविधो हि स्यात्सकलो विकलस्तथा। आद्यः तपस्विभिः पाल्यः परस्तु गृहिभिस्तथा।। उपास्वामि श्रावकाचार में संयम के दो भेदों का उल्लेख करते हुये कहा है कि संयम दो प्रकार का जानना चाहिए (1) इन्द्रिय संयम (2) प्राणी संयम। पाँचों इन्द्रियों के विषयों की निवृत्ति करना इन्द्रिय संयम है और छह काय के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है संयमो द्विविधो ज्ञेय आद्यश्चेन्द्रियसंयमः। इन्द्रियार्थनिवृत्त्युत्यो द्वितीयः प्राणिसंयमः।। (3/169/201) इस प्रकार प्रत्येक संयम पर विस्तार से विवेचन है। पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका में संयम की प्ररेणा देते हुए कहा है कि गृहस्थों को
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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