________________
श्री सोमदेवसूरि द्वारा प्रतिपादित अहिंसा
-डॉ. जय कुमार जैन विश्व के सभी धर्मों में अहिंसा की महत्ता को स्वीकार तथा हिंसा का विरोध है। किन्तु जैन धर्म में अहिंसा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। अहिंसा बाह्य और अन्तरंग दोनों से सम्बन्ध रखती है। बाह्य में मन वचन, काय से किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाना अहिसा है तो अंतरंग में राग-द्वेष रूप परिणामों से निवृत्त होकर समता में स्थित होना अहिंसा है। आचार्य उमास्वामी ने 'प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा' कहकर यह स्पष्ट कर दिया है कि जो स्वपर के प्राणों का विनाश प्रमत्तयोग अर्थात् राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति के कारण होता है, वह हिंसा है। आगम में वर्णित द्रव्य और भाव प्राणों में से प्रमत्त योग होने पर द्रव्य प्राणों का विनाश हो या न हो, भाव प्राणों का विनाश तो होता ही है। यह अलग बात है कि प्रमत्तयोग न होने पर भी साधु के ईर्यासमिति पूर्वक गमन आदि में भी द्रव्य प्राणों का विनाश होने पर भी तो हिंसा नियम से होगी ही। इसी कारण श्री अमृतचन्द्राचार्य ने रागद्वेष की अनुत्पत्ति को अहिंसा और उनकी ही उत्पत्ति को हिंसा कहा है
'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।2 'अहिंसालक्षणो धर्मः कथन में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का भी समावेश अहिंसा में किया गया है। यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति रखने पर भी सर्वत्र जीवों का सद्भाव होने से हिंसा तो होती ही है किन्तु प्रमाद न होने से साधक अहिंसक ही कहलाता है।
श्रीसोमदेवसूरिकृत यशस्तिलकचम्पू का उद्देश्य ही अहिंसा की प्रतिष्ठापना रहा है। इसके आठ आश्वासों में से अन्तिम तीन आश्वासों में श्रावक धर्म का विवेचन है। इसका नामकरण ग्रन्थकार ने