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________________ अनेकान्त 59 / 3-4 जैनदर्शन में जानने रूप क्रिया के चेतन होने से उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही हो सकता है । इसलिए इस परम्परा में सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है, जिसमें विभिन्न कालों में जैनाचार्यों द्वारा प्रमाण के स्वरूप में दिये गये अविसंवाद, अपूर्व आदि सभी विशेषण गर्भित हो जाते है । प्रमाणमीमांसा पर चिन्तन करने वाले आचार्यो की वह परम्परा उमास्वामी, समन्तभद्र आदि से लेकर 18वीं शती के आचार्य यशोविजय तक अविच्छिन्न रूप से वृद्धिंगत होती रही, जिसमें आप्तमिमांसा आदि के कर्ता स्वामी समन्तभद्र जैनन्याय के जनक कहे गये । वैदिक दर्शन के लिए प्रमाणमिमांसा हेतु ऋग्वेदादि विशाल साहित्य उपलब्ध होने पर भी प्रमाण का सूत्रपात एवं व्यवस्था करने वाले सभी आचार्यो का काल प्रायः समान है । प्रमाण विषयक विवेचन के लिए जैन परम्परा में कुन्दकुन्द तक ज्ञान विवेचन की ठोस आधार भूमि प्रमाण विवेचक आचार्यो को प्राप्त हुई, जिसके आधार पर सर्व प्रथम उमास्वामी ने प्रमाण का सूत्रपात किया । तत्पश्चात् समन्तभद्र और सिद्धसेन इन दो आचार्यो ने प्रमाण की सूत्रपात रूपी नींव पर प्रमाण का भव्य प्रासाद निर्मित किया । इनके उत्तरवर्ती अकलक, विद्यानन्द आदि आचार्यो का आश्रय लेकर प्रमाणचर्चा को युगानुरूप ढांचे में ढालने का प्रयत्न किया । 30 सन्दर्भ निर्देश 1. आप्तमीमांसा, समन्तभद्र, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, दिल्ली, सन् 1961, कारिका 6, 2. सन्मतिप्रकरण, सिद्धसेन, स. सुखलाल सधवी, बे दोषी ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद, 1963, गाथा 45, 3. आगम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा 1966, 4. वही पृष्ठ 281, 5. जैनदर्शन, पं. महेन्द्रकुमार जैन, गणेश वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, 1974, पृ. 11, 6 जैनन्याय, प. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्र. स. 1966, भूमिका पृ. 10, 7. ऋग्वेद सायणभाष्य सहित, वैदिक संशोधन मंडल, तिलक म. विद्यापीठ पूना, 1946, 10.130.3, 7, 8. वहीं, सायणभाष्य, पृ 785-787, 9. शतपथ ब्राह्मण, 4. 6.9.20, 11.5.6.8 आदि, 10. ऐतरेय ब्राह्मण, 6.23, 11. चरकसंहिता, सूत्रस्थान 11.32, 12. वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड, 1.13.23, 7. 53.15, महाभारत, आदिपर्व 1.67, शान्तिपर्व 180.47, 210.12, 256.12 आदि, मनुस्मृति, 2.11, 6.50 आदि, 13. कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्, भाग 1, पृष्ठ 26, 28, 14. न्यायदर्शन,
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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