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________________ पचास वर्ष पूर्व जैन और बौद्धधर्म एक नहीं - जगदीशचन्द्र जैन बहुत दिनों से कुछ मित्रों की इच्छा थी कि ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी ने " जैन-बौद्ध तत्त्वज्ञान” नामक पुस्तक में जो जैन और बौद्धधर्म के ऐक्य के विषय में अपने नये विचार प्रकट किये हैं, उन पर मैं कुछ लिखूं । उक्त पुस्तक को प्रकाशित हुए बहुत-सा समय निकल गया । किन्तु लिखने की इच्छा होते हुए भी कार्य - भार से मैं इस ओर कुछ भी न कर सका। अभी कुछ दिन हुए मुझे बम्बई युनिवर्सिटी के एक एम. ए. के विद्यार्थी को पाली पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ । मेरी इच्छा फिर से जागृत हो उठी, और अब श्रीमान् पंडित जुगलकिशोर जी के पत्र से तो मैं अपने लोभ को संवरण ही न कर सका । ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी और उक्त पुस्तक पर सम्मतिदाता बाबू अजितप्रसाद जी वकील का कथन है कि "बौद्धमत के सिद्धान्त जैन सिद्धान्त से बहुत मिल रहे हैं”। “जैन व बौद्ध में कुछ भी अन्तर नहीं है । चाहे बौद्धधर्म प्राचीन कहें या जैनधर्म कहें एक ही बात है" । इन महानुभावों का कथन है कि “जीव तत्त्व के ध्रुवरूप अस्तित्व में और शाश्वत मोक्ष की प्राप्ति में बौद्ध और जैनागम में विरोध नहीं है" । हम यहाॅ पाठकों को यह बताना चाहते है कि उक्त विचार अत्यंत भ्रामक हैं । जैनधर्म को उत्कृष्ट और प्राचीन सिद्ध करने के लिये इस तरह के विचारों को जनता में फैलाना, यह जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मो के प्रति अन्याय करना है । ब्रह्मचारी जी “बौद्ध साधुओं के साथ वार्त्तालाप करने" मात्र से ही उक्त निर्णय पर पहुँच गये है। सचमुच ब्रह्मचारी जी अपने उक्त क्रान्तिकारक (2) विचारों से अकलंक आदि जैन विद्वानो की भी अवहेलना कर गये हैं । नीचे की बातों से स्पष्ट होगा कि ब्रह्मचारी जी के निष्कर्ष कितने निर्मूल हैं ।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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