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अनेकान्त 59/3-4
दूसरा उल्लेखनीय मंदिर चिंतामणि राव बीका जी का है, जो 1505 में पूरा हुआ। इस मंदिर में एक गर्भगृह तथा उससे संलग्न एक मण्डप है। आगे चलकर इस मंदिर का विस्तार किया गया, जिसमें एक अन्य मण्डप तथा दो दिशाओं में प्रवेश-द्वार एवं मुख-मण्डप और जोड़ दिए गए। इसका मूल-प्रासाद मध्यकालीन गुर्जर शैली का है तथा इसकी ऊँचाई कम है। इसकी बाह्य संरचनाओं में गुम्बद युक्त मण्डपों तथा स्तंभों और उनके शीर्षों की अभिकल्पना एवं स्थापत्यीय निर्माण में अहमदबाद और चांपानेर की सल्तनत स्थापत्य शैली के प्रभाव को ग्रहण किया।
मध्यकालीन जैन मंदिरों में कुछ मंदिर फलौदी, कोटा, किशनगढ़, मारोठ, सीकर तथा राजस्थान के अन्य स्थानों में भी सुरक्षित बचे हुए हैं। इनमें से कोई भी मंदिर संरचना की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय नहीं है। पश्चिम भारत के इतिहास में मुसलमानों के विध्वंसक अभियानों के लिए तेरहवीं शताब्दी के अंतिम तथा चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्ष उल्लेखनीय रहे हैं। धार्मिक ईर्ष्या तथा धन लोलुपता के कारण विशेष कर अलाउद्दीन खिलजी ने पश्चिम भारत के असंख्य मंदिरों का जी भरकर विष्ट वंस किया। इस क्षेत्र का जन समाज जब से आघात को सहकर ऊपर उठने में सफल हुआ तो उसके अंदर कुछ नये मान-मूल्यों ने स्थापना पायी, जिसके साथ उसे अपने कुछ समृद्ध पारंपरिक मान-मूल्यों को भी छोड़ना पड़ा। इस क्षेत्र के जैनों ने भी ध्वस्त मंदिरों का पुनरुद्धार तथा नये मंदिरों का निर्माण कराकर पवित्र कार्यों के संपादन में अपने उत्साह का प्रदर्शन किया।
जैनों द्वारा कराये गये स्थापत्यीय निर्माणों की दृष्टि से पंद्रहवीं शताब्दी पश्चिम-भारत के लिए विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होती है। इस समय का रणकपुर का चौमुखा मंदिर श्रेष्ठतम उदाहरण है। यह आदिनाथ या युगादीश्वर-मंदिर है। मन्दिर के मुख-मण्डप के प्रवेश-द्वार के पार्श्व में लगे एक स्तंभ पर अंकित अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सन् 1439 में एक जैन धर्मानुयायी, धरणाक के अनुसार देवाक नामक वास्तुविद् ने किया था। इस भव्य चौमुखा मंदिर के निर्माण में कला और