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________________ पण्डित परम्परा की अन्तिम कड़ी का अवसान वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित अनेकान्त और उसके पर्याय के रूप में प्रतिष्ठित ज्ञानवृद्ध पं. पद्म चन्द्र शास्त्री का देहावसान 1 जनवरी 2007 की मध्यरात्री में हो गया। पण्डित जी के अवसान के साथ ही 20वीं शताब्दी के जैन पण्डित परम्परा की अन्तिम कड़ी भी समाप्त हो गई। व्यावहारिक धरातल पर कठोर छवि धारण करने वाले पण्डित जी स्वभाव से अत्यन्त मृदु, सहृदयी और जैन आगम के आड़ोलन-विलोड़न कर जिनधर्म के सूक्ष्म तत्वों को उद्घाटित करने में सिद्ध हस्त थे। अपनी अवधारणाओं के साथ किसी भी स्थिति में समझौता न करना उनकी अनुपम विशेषता थी। आजीविका की जद्दोजहद में भी उन्होनें कभी समझौता नहीं किया। समाजिक विरोधाभासों को वे अपनी सशक्त लेखनी से उजागर कर समाज को हमेशा सचेष्ट करते रहे। जिनधर्म के मल अपरिग्रह सिद्धान्त को न केवल अपने जीवन में चरितार्थ किया, बल्कि प्रत्येक प्रसंग पर उनकी स्पष्टोक्ति थी कि वस्तुतः जैन धर्म का प्रचार-प्रसार आचरण के माध्यम से ही हो सकता है और आचरण अपरिग्रह व्रत को जीवन में अपनाने से सम्भव है, जिस पर आजकल लोग ध्यान ही नहीं देते। अहिंसक आचरण की भित्ति अपरिग्रह के नींव पर ही खड़ी हो सकती है। अहिंसा का राग अलापने से आत्ममुग्ध तो हुआ जा सकता है उससे जीवन अहिंसा की सुगन्ध से सुरभित नहीं हो सकता। परिग्रह के दलदल में फंसा हुआ समाज जब तक अपरिग्रही वृत्ति को जीवन में नहीं उतारता तब तक न तो जैन धर्म के मर्म को समझा जा सकता है और न ही जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ही हो सकता है।
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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