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________________ भगवान महावीर और परिग्रह-परिमाण व्रत ___-डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन जैन धर्मानुसार आत्मा पुरुषार्थ करे तो परमात्मा बन जाती है। एक बार परमात्म-पद प्राप्त हो जाने के बाद संसार में पुनरागमन नहीं होता। भगवान महावीर का निर्वाण के उपरान्त संसार में पुनः आगमन नहीं हो सकता; लेकिन जिस जीव का आगमन संसार में हुआ है उसका स्व पुरुषार्थ के बल पर परमात्मा बन भगवान महावीर जैसा बनना सुनिश्चित है। भगवान महावीर की साधना किसी एक जन्म की नहीं अपितु अनेक जन्मों की साधना का परिणाम थी, जिसका लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्त होना अवश्यंभावी था। तीर्थकर का जन्म मात्र स्व-उपकार के लिए ही नहीं अपित पर-उपकार के लिए भी होता है। तीर्थकर के जन्म के पूर्व की परिस्थितियाँ भी उनकी आवश्यकता को प्रतिपातिद करती हैं। 'वीरोदय महाकाव्य' के अनुसार "मनोऽहिवद्विमकल्पहेतुर्वाणी कृपाणीव च मर्म भेत्तुम् । कायोऽप्यकायो जगते जनस्य न कोऽपि कस्यापि बभूव वश्यः॥ इति दुरितान्धकारके समये नक्षत्रीघसङ्कलेऽयमये। अजनि जना लादनाय तेन वीराइयवरसुधास्पदेन ॥" अर्थात् उस समय के लोगों का मन सर्प के तुल्य कुटिल हो रहा था, उनकी वाणी कृपाणी (छुरी) के समान दूसरों के मर्म को भेदने वाली थी और काय भी पाप का आय (आगम-द्वार) बन रहा था। उस समय कोई भी जन किसी के वश में नहीं था; अर्थात् लोगों के मन-वचन काय की क्रिया अति कुटिल थी और सभी स्वच्छन्द एवं निरङ्कश हो रहे थे। इसप्रकार पापान्धकार से व्याप्त, दुष्कृत-मय, अक्षत्रिय जनों के समूह से
SR No.538059
Book TitleAnekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2006
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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